एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा l
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा l
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी l
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पाँव भगी l
जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए l
ऐंठता तू किसलिए रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए l
कवि - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कितना अकेलापन इतना कि खुद से भी दूर रहने का मन,
जवाब देंहटाएंमैं और मेरी तन्हाई आपस में बातें नहीं करते, न यादें न अहसास न कोई पास,
एक शून्य सा विचारशून्यता भावहीनता और आत्महीनता,
प्रयोजनहीनता तो तब ही आ गयी थी कोई एक युग पहले तेरे जाने के बाद,
अब यंत्रबद्धता है बस कभी उद्दीपक अनुक्रिया सी, सामने दिखने के बाद कुछ उद्वेग से उठते हैं,
जैसे कि ज्वार धरती से उठता है चांद को पाने को, बस एक बेकार सी कोशिश, सब खत्म हो चुका है,
ये परछाईयां हैं अतीत की डराने को आती हैं।
ये सत्ता व्यवहारिक से प्रतिभासिक हो चुकी, सब स्वप्न सा है!!
अब स्वप्नों का ये सिलसिला स्वप्नहीन निद्रा ही तोड़ देती
ताकि मैं कह सकूं - मैं ………………चुका हूं
शेखर