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शनिवार, 18 मई 2013

विरहिणी पर व्यंग (Virahini par vyang by Nirala)


(घनाक्षरी)
हार  मन  मार मार  की  बहू ललाट ठोंक 
काजल  बहा  कपोल  कुत्सित किया करें l 
अंचल ? लजी मशालची की लालटेन काली 
नेत्र  जल  से  प्रबल  नासिका  सदा   झरे l 
कल्पना  ललाम  की लगाम थाम कविदल 
मुख तुलना  न  कभी  चन्द्र  के बिना करे l 
चाँद  आइने  में  चारु  चित्र  देख  चुप  वह 
तकिया  सहारे  पड़ी  तारे  ही  गिना  करे l 

[आदर्श, मासिक, कलकत्ता, वर्ष 1, अंक 2-4, पौष-माघ, 1979 (1922ई.)]

कवि - निराला
संग्रह - असंकलित कविताएँ : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला में 
रामविलास शर्मा की 'निराला की साहित्य साधना - 1' से 
संपादक - नन्दकिशोर नवल 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1981

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