हज़ार रंग मिले, इक सुबू की गरदिश में
हज़ार पैरहन आए गए ज़माने में
मगर वो सन्दल-ओ-गुल का गुबार, मुश्ते बहार
हुआ है वादिए जन्नत निशां में आवारा
अज़ल के हाथ से छूटा हुआ हयात का तीर
वो शश जेहत का असीर
निकल गया है बहुत दूर जुस्तजू बनकर l
मुश्ते बहार = मुट्ठी भर बहार
वादिए जन्नत निशां = स्वर्ग के चिह्नों की घाटी में
अज़ल = अनादि काल
शश जेहत का असीर = छः दिशाओं का बन्दी
शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004
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