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शनिवार, 21 सितंबर 2013

तिरहुति (Tirhuti, Maithili folksong)

कमल नयन मनमोहन रे 
कहि गेलाह अनेके 
कतेक दिवस हम खेपब रे 
हुनि वचनक टेके
जहँ-जहँ हरिक सिंहासन रे 
आसन तेहि ठामे 
तहाँ कते व्रजनागरि रे 
लय-लय हरिनामे 
आँगन मोर लेखे विजुवन रे 
भेल दिवस अन्हारे 
सेज लोटय कारि नागिन रे 
कोना सहु दुख-भारे 
मलिन वसन तन भूषण रे 
शिर फूजल केशे 
नागरि पुछथि पथिक सँ रे 
कहु हरिक उदेशे 
के पाती लै जायत रे 
जहाँ बसे नन्दलाले 
लोचन हमर विकल भेल रे 
छाती देल शाले 
'साहेबराम' रमाओल रे 
सपना संसारे 
फेरि नहिं एहि जग जनमब रे 
मानुष अवतारे 

कमलनयन मनमोहन अनेक प्रकार की सांत्वना दे कर चले गए l 
उनके वचन पर निर्भर रह कर मैं अब और कितने दिन उनके पथ पर आँखें बिछाऊँ l जहाँ-जहाँ हरि का सिंहासन है, वहाँ-वहाँ मेरा आसन भी है और वहाँ ही अनेक व्रजांगनाएँ हरि का नाम ले-लेकर वास करती हैं l 
मेरे लिए मेरा आँगन निर्जन वन है, और श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति में मेरे लिए दिन का प्रकाश भी अन्धकार-सा प्रतीत होता है l 
उनके विरह में मेरे बिखरे हुए कुन्तल-कलाप काली नागिन की तरह बल खा रहे हैं l 
हाय ! मैं इस दुख का भार किस प्रकार वहन करूँ ? मेरे शरीर के वसन और भूषण मलिन हो चले और मेरे शिर के बाल भी अस्त-व्यस्त हो गए l 
उस ओर से आये हुए पथिकों से सुन्दरी जिज्ञासा करती है कि कहो मेरे प्राणाधार श्रीकृष्ण कैसे हैं ?
हाय ! जहाँ नन्द-नन्दन रहते हैं, वहाँ उनके पास मेरा सन्देश कौन ले जाय ? उन्हें देखने के लिए मेरी आँखें तरस रही हैं, और उनकी याद कलेजे में शूल पैदा करती है l 
'साहेबराम' कवि कहते हैं कि यह संसार स्वप्नमय है l इस संसार में नरतन धारण कर फिर नहीं जन्म लूँगा l
संग्रह - मैथिली लोकगीत 

संग्रहकर्ता और संपादक - राम इकबाल सिंह 'राकेश' 

प्रकाशक - हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग

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