झील पर अनलिखी
लम्बी हो गयीं परछाइयाँ
गहन तल में
कँपी यादों की सुलगती झाँइयाँ
आह ! ये अविराम अनेकरूप विदाइयाँ !
इस व्यथा से ओट दे ओ साँइयाँ !
कवि - अज्ञेय
संकलन - ऐसा कोई घर आपने देखा है
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1986
आज विनोद रैना को भी विदा कर आए हम !
याद आते रहेंगे वो दिन वो गीत जो विनोद एकलव्य के पहले १० सालों में गाता था - ;ये रातें ये मौसम ये हंसना हंसाना, मुझे भूल जाना इन्हें न भुलाना' उसका एक पसन्दीदा गीत था - वह कश्मीरी अन्दाज़ में भूल की जगह बूल कहता था और हम हलके से मुस्कुरा देते थे। और फिर उसके घर पर कहवा और शास्त्रीय संगीत। इधर कई सालों से फुर्सत की मुलाकातें काफी कम हो गईं थी - उसने अपनी बीमारी का ज़रा भी अन्दाज़ न होने दिया - नहीं तो शायद... खैर याद तो वह रहेगा ही - हम सभी को
जवाब देंहटाएं