भाँग की चर्चा होने पर एक खास व्यक्ति का ख्याल स्वतः ही मस्तिष्क में
आ जाता है l ठीक जैसे देवघर की चर्चा हो और पण्डों की नहीं, पण्डों की चर्चा हो और
भाँग की नहीं, उसी प्रकार भाँग की चर्चा हो और गुलाब सरेवार की नहीं, ऐसा हो नहीं
सकता l जी हाँ, भाँग और गुलाब एक दूसरे के पूरक बन चुके थे l जितने अच्छे कलाकार
वे थे, उतने ही अच्छे फ़ुटबॉल के खिलाड़ी l सेण्टर-हाफ का उनका चिर-सुरक्षित स्थान,
और कालीरेखा टीम के वे दुर्भट प्रहरी l विपक्षी टीम के सामने हिमालय पहाड़ बनकर खड़े
रहते, तेज से तेज फॉरवर्ड भी उन्हें भेद न सका l वहाँ भी उनका भाँग का साथ नहीं छूटा
l मध्याह्न में जब दूसरे खिलाड़ी नीम्बू-पानी पी रहे होते उनका दोस्त भाँग की एक
छोटी सी गोली उन्हें ला देता l
यों भाँग की वजह से उन्हें कई बार खामियाजा भी भुगतना पड़ा था l ...तब
मन्दिर के प्रांगण में बांग्ला जात्रा (खुले आसमान के नीचे आयोजित नाटक) का आयोजन
प्रायः ही किया जाता था l पण्डों की खूबी यह थी कि वे हिन्दी ठीक से भले न बोल
पाते, पर बांग्ला धड़ल्ले से बोल लेते थे l वहाँ की संस्कृति बांग्ला-संस्कृति से
काफी प्रभावित थी l उस जात्रा में गुलाब सरेवार विश्वामित्र की भूमिका निभा रहे थे
l विश्वामित्र तपस्या में लीन थे और मेनका उनको रिझाने का भरसक प्रयत्न कर रही थी
l नाचते-नाचते मेनका थक गयी, फिर भी प्रॉम्पटर के लाख बोलने के बावजूद,
विश्वामित्र की तपस्या भंग न हुई l लाचार होकर सूत्रधार ने एक बड़े डंडे का सहारा
लिया और उनकी पीठ पर जोर से धक्का दिया l हुआ यों था कि उस दिन गुलाबजी ने कुछ
ज्यादा ही बड़ा भंग का गोला छन लिया था, इसका नतीजा हुआ कि तपस्या की मुद्रा में
आँखें बन्द करते ही भाँग ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया l गुलाबजी गहरी नींद में
सो गये l बाँस का धक्का दिए जाने के बाद वे चौंक उठे l संवाद तो याद नहीं रहा,
अनायास उनके मुँह से निकल पड़ा, “मुझे किसने हुरकुच्चा ?” (हुरकुचना स्थानीय बोली
में डण्डे से जोर से कोंचने के अर्थ में इस्तेमाल होता है) दर्शकों में हँसी का
फव्वारा फूट पड़ा और सूत्रधार को बीच में ही पटाक्षेप करना पड़ा l फिर क्या था,
दूसरे दिन से महीनों तक गुलाबजी का वह वाक्य पूरे शहर में गूँजता रहा और लोग
लोट-पोट होते रहे l
लेखक – शान्तनु, गंगानन्द झा
किताब – भाजो का कुनबा
(पण्डा समाज की संस्कृति का संस्मरणात्मक दस्तावेज)
(पण्डा समाज की संस्कृति का संस्मरणात्मक दस्तावेज)
प्रकाशक – अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2013
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