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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

कोई दिन और (Koi din aur by 'Akhtar' Sheerani)

ग़मख़ान-ए- हस्ती में हैं मेहमाँ कोई दिन और 
कर ले हमें तक़दीर परीशाँ कोई दिन और 

तुरबत वो जगह है की जहाँ ग़म है न हैरत 
हैरतकद-ए-ग़म में हैं हैराँ कोई दिन और 

यारों से गिला है न अज़ीज़ों से शिकायत 
तक़दीर में है हसरतो-हिरमाँ कोई दिन और 

पामाले-ख़िजाँ होने को हैं मस्त बहारें 
है सैरे-गुलो-हुस्ने-गुलिस्ताँ कोई दिन और 

मर जाएँगे जब हम तो बहुत याद करेगी 
जी भर के सता ले शबे-हिजराँ कोई दिन और 

आज़ाद हूँ आलम से तो आज़ाद हूँ ग़म से 
दुनिया है हमारे लिए ज़िन्दाँ कोई दिन और 

हस्ती कभी क़ुदरत का इक एहसान थी हम पर
अब हम पे है क़ुदरत का ये एहसाँ कोई दिन और 

लानत थी गुनाहों की नदामत मिरे हक़ में 
है शुक्र की इसमें हैं पशेमाँ कोई दिन और 


'शेवन' को कोई ख़ुल्दे-बरीं में ये ख़बर दे 
दुनिया में अब 'अख़्तर' भी है मेहमाँ कोई दिन और 


ग़मख़ान-ए- हस्ती  = जीवन रूपी दुखों का आगार  ; तुरबत = क़ब्र ; हैरतकद-ए-ग़म = दुखों का आश्चर्यलोक ; हसरतों-हिरमाँ = अधूरी इच्छाएँ और दुख ; पामाले-ख़िजाँ = पतझड़ से पामाल ; सैरे-गुलो-हुस्ने-गुलिस्ताँ= फूलों की सैर और उपवन की सुन्दरता ; शबे-हिजराँ= वियोग की रात ; ज़िन्दाँ = क़ैदखाना ; नदामत = शर्मिन्दगी ; पशेमाँ = शर्मिन्दा ; शेवन = एक शायर का उपनाम ; ख़ुल्दे-बरीं = सबसे ऊँचे स्वर्ग में


शायर - 'अख़्तर' शीरानी संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी
संपादक - नरेश 'नदीम'

प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2010

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