"अरे, अरे, दिन-दहाड़े ही जुल्म ढाता है !
रेलवे का स्लीपर उठाए कहाँ जाता है ?"
"बड़ा बेवकूफ़ है, अजब तेरा हाल है ;
तुझे क्या पड़ी है ? य' तो सरकारी माल है ?"
"नेता या प्रणेता! तेरा ठीक तो ईमान है ?
पर, दिया जाता अब देश में न कान है l
बने जाते कल-कारखाने आलीशान भी,
साथ-साथ तेरे कुछ अपने मकान भी l”
“भाई, बकने दो उन्हें, तुम तो सुजान हो,
कविता बनाते हो, हमारे अभिमान हो l
मान लो, कभी जो चूर-धुन थोड़ा पाते हैं,
भारत से बाहर तो फेंक नहीं आते हैं l
जो भी बनवाये, अपना ही व’ भवन है,
देश में ही रहता है, देश का जो धन है l”
“और, अरे यार ! तू तो बड़ा शेर-दिल है,
बीच राह में ही लगा रखी महफ़िल है !
देख, लग जाएँ नहीं मोटर के झटके,
नाचना जो हो तो नाच सड़क से हटके l”
“सड़क से हट तू ही क्यों न चला जाता है ?
मोटर में बैठ बड़ी शान दिखलाता है !
झाड़ देंगे, तुझमें जो तड़क-भड़क है,
टोकने चला है, तेरे बाप की सड़क है ?
सर तोड़ देंगे, नहीं राह से टलेंगे हम,
हाँ, हाँ, जैसे चाहें, वैसे नाच के चलेंगे हम l
बीस साल पहले की शेखी तुझे याद है l
भूल ही गया है, अब भारत आज़ाद है l”
कवि - रामधारी सिंह दिनकर (1908 -1974)
किताब - दिनकर रचनावली, खंड-1
संपादक - नन्दकिशोर नवल, तरुण कुमार
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011
Incomplete
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