वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता l
कहने में अर्थ नहीं
कहना पर व्यर्थ नहीं
मिलती है कहने में
एक तल्लीनता l
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता l
आस-पास भूलता हूँ
जग भर में झूलता हूँ ;
सिन्धु के किनारे, कंकर
जैसे शिशु बीनता l
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता l
कंकर निराले नीले
लाल सतरंगी पीले
शिशु की सजावट अपनी,
शिशु की प्रवीनता l
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता l
भीतर की आहट भर
सजती है सजावट पर
नित्य नया कंकर क्रम,
क्रम की नवीनता l
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता l
वाणी को बुनने में ;
कंकर के चुनने में
कोई उत्कर्ष नहीं
कोई नहीं हीनता l
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता l
केवल स्वभाव है
चुनने का चाव है
जीने की क्षमता है
मरने की क्षीणता l
वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता l
कवि - भवानीप्रसाद मिश्र
संकलन - दूसरा सप्तक
संपादक - अज्ञेय
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, दूसरा पेपरबैक संस्करण - 2002
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