बूढ़ा चाँद
कला की गोरी बाँहों में
क्षण-भर सोया है !
यह अमृत कला है
शोभा असि,
वह बूढ़ा प्रहरी
प्रेम की ढाल !
हाथी दाँत की
स्वप्नों की मीनार
सुलभ नहीं, -
न सही !
ओ बाहरी
खोखली समते,
नाग दन्तों
विष दन्तों की खेती
मत उगा !
राख की ढेरी से ढँका
अंगार-सा
बूढ़ा चाँद
कला के बिछोह में
म्लान था,
नए अधरों का अमृत पीकर
अमर हो गया !
पतझर की ठूँठी टहनी में
कुहासों के नीड़ में
कला की कृश बाँहों में झूलता
पुराना चाँद ही
नूतन आशा
समग्र प्रकाश है !
वही कला,
राका शशि -
वही बूढ़ा चाँद,
छाया शशि है !
कवि - सुमित्रानन्दन पन्त
संकलन - स्वच्छंद
प्रमुख संपादक - अशोक वाजपेयी, संपादक - अपूर्वानन्द, प्रभात रंजन
प्रकाशक - महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000
चाँद पर न जाने कितनों ने लिखा है, मगर पंतजी की छटा बेजोड़ है !
चाँद पर न जाने कितनों ने लिखा है, मगर पंतजी की छटा बेजोड़ है !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें