वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पाण्डव आये कुछ और निखर l
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है ?
मैत्री की राय बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पाण्डव का सन्देशा लाये l
"दो न्याय अगर, तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम l
हम वही खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे l"
दुर्योधन वह भी दे न सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला l
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है l
कवि - रामधारी सिंह दिनकर (1908 -1974)
किताब - दिनकर रचनावली, खंड-2 में संकलित 'रश्मिरथी' के तृतीय सर्ग से
संपादक - नन्दकिशोर नवल, तरुण कुमार
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011
आज कचनार के साथ मीरा के पद पढ़ रही थी. उसमें द्रौपदी के प्रसंग से महाभारत की कथा पर हम आ गए. बचपन में सुने कुछ प्रसंग कचनार को याद थे और वह अलग-अलग पात्रों के बारे में और अधिक जानने को उत्सुक थी. इतने में अपूर्व 'रश्मिरथी' ले आए और उसका पाठ करने लगे. कचनार के बहाने हम सब ने कथा दुहराई.
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