जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो !
हँसती गाती रौशन वादी
तारीकी में डूब गई
बीते दिन की लाश पे ऐ दिल
मैं रोता हूँ, तू भी रो l
जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो !
हर धड़कन पर खौफ़ के पहरे
हर आंसू पर पाबन्दी
ये जीवन भी क्या जीवन है
आग लगे इस जीवन को l
जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो !
अपने होंठ सिए हैं तुमने
मेरी ज़बाँ को मत रोको
तुमको अगर तौफ़ीक़ नहीं तो
मुझको ही सच कहने दो l
जुल्म रहे और अम्न भी हो,
क्या मुमकिन है, तुम ही कहो !
तारीकी = अन्धकार तौफ़ीक़ = सामर्थ्य
शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010
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