हिजाबे-फ़ित्नापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था
तिरी नीची नज़र ख़ुद तेरी इस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था
तिरी चीने-जबीं ख़ुद इक सज़ा क़ानूने-फ़ितरत में
इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती तो अच्छा था
ये तेरा ज़र्द रुख़, ये ख़ुश्क लब, ये वह्म, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था
दिले-मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल !
तू आँसू पोंछकर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
तिरे ज़ेरे-नगीं घर हो, महल हो, क़स्र हो, कुछ हो
मैं ये कहता हूँ तू अर्ज़ो-समाँ लेती तो अच्छा था
अगर ख़िलवत में तूने सर उठाया भी तो क्या हासिल !
भरी महफ़िल में आकर सर झुका लेती तो अच्छा था
तिरे माथे का टीका मर्द की क़िस्मत का तारा है
अगर तू साज़े-बेदारी उठा लेती तो अच्छा था
अयाँ हैं दुश्मनों के खंज़रों पर ख़ून के धब्बे
इन्हें तू रंगे-आरिज़ से मिला लेती तो अच्छा था
सनानें खैंच ली हैं सरफिरे बाग़ी जवानों ने
तू सामाने-जराहत अब उठा लेती तो अच्छा था
तिरे माथे पर ये आँचल बहुत ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
- 1937
ख़ातून = स्त्री ; हिजाबे-फ़ित्नापरवर= फ़ित्ने जगानेवाला पर्दा ; मुहाफ़िज़ = रक्षक ; चीने-जबीं = माथे की त्यौरी ; क़ानूने-फ़ितरत = प्रकृति का विधान ; कारे-सज़ा = दंड देने का काम ; दिले-मजरूह = घायल दिल ; ज़ेरे-नगीं = निगरानी (अधिकार) में ; क़स्र = महल ; अर्ज़ो-समाँ = धरती-आकाश ; ख़िलवत = एकांत ; साज़े-बेदारी = जागृति का साज़ ; अयाँ = प्रकट ; रंगे-आरिज़ = गालों के रंग ; सनानें = तलवारें ; सामाने-जराहत = इलाज का सामान
शायर - 'मजाज़' लखनवी
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'मजाज़' लखनवी
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, 2001
1985 की बात है। बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मलेन जमशेदपुर में हो रहा था। उसमें यादगार के तौर पर मैंने कैफ़ी आज़मी से दस्तख़त लिए थे। उन्होंने मजाज़ की इसी नज़्म की ये अंतिम पंक्तियाँ लिखकर मुझे दी थीं -
तिरे माथे पर ये आँचल बहुत ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
वह 'ऑटोग्राफ बुक' तो गुम हो गई, लेकिन यह पंक्ति मुझे कभी नहीं भूलती है।
1985 की बात है। बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मलेन जमशेदपुर में हो रहा था। उसमें यादगार के तौर पर मैंने कैफ़ी आज़मी से दस्तख़त लिए थे। उन्होंने मजाज़ की इसी नज़्म की ये अंतिम पंक्तियाँ लिखकर मुझे दी थीं -
तिरे माथे पर ये आँचल बहुत ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
वह 'ऑटोग्राफ बुक' तो गुम हो गई, लेकिन यह पंक्ति मुझे कभी नहीं भूलती है।
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