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बुधवार, 27 मार्च 2013

कैफ़ियते-बाग़ (Kaifiyat-e-bagh by Mirza 'Shauq' Lakhnawi)

बाग़ है पर अजब है ये रूदाद 
न कोई आदमी न आदमज़ाद 
गुल हैं सब अपने-अपने जोबन पर 
बू-ए-गुल है सबा के तौसन पर 
हैं अजब लुत्फ़ पर सबा-ओ-गुल 
बाग़ रंगीन जिससे है बिलकुल 
है अजब लुत्फ़ पर जमाले-चमन 
झूमते हैं खड़े निहाले-चमन 
सब्ज़ा इक जा पे लहलहाता है 
पेच सुम्बुल कहीं पे खाता है 
मालती खिल रही जो हर सू है 
कुछ अजब भीनी-भीनी खुशबू है 
आबपाशी से सब्ज़ा लायक़े-दीद 
सब्ज़ मख़मल पे जैसे मरवारीद 
फूल एक-एक उसमें बू-क़लमूँ 
हो जिसे देख आदमी को जुनूँ 
वो सुहाना-सुहाना वक़्ते-ज़वाल 
लुत्फ़े-गुलशन से हर शजर है निहाल 
बाग़ छोटा सा, प्यारे-प्यारे चमन 
गुल तो गुल, पत्ते-पत्ते पर जोबन 
बीच में बँगला एक है ख़स का 
फ़र्श जिसमें तमाम अतलस का 
चार जानिब से आती है खुशबू 
कहीं जूही खिली, कहीं शब्बू 
हर चमन पर नई तरह की बहार 
फूला इक सिम्त को है हार-सिंगार 
सब चमन अपने-अपने रंग के हैं 
फूल कुछ चीन, कुछ फ़िरंग के हैं 
क़फ़से - तायराने - तेज़ - ज़बीं 
हैं  क़रीनों  से  अपने  आवेज़ां 
गुल जो चारों तरफ़ महकते हैं 
मस्त हो-हो के सब चहकते हैं


रूदाद = कहानी ;  बू-ए-गुल = फूल की बू ;  सबा = ठंडी हवा ;  तौसन= घोड़े का उद्दंड बच्चा ;  जमाले-चमन = चमन का सौन्दर्य ;  निहाले-चमन = चमन के पौधे ;  सब्ज़ा = हरियाली  ;  सू = तरफ़ ;  आबपाशी = सिंचाई ;   लायक़े-दीद = दर्शनीय ;  मरवारीद = मोती ;  बू-क़लमूँ = रंग-बिरंगे ;  वक़्ते-ज़वाल = दिन ढलने का समय ;  शजर = पेड़ ;  अतलस = एक तरह का कपड़ा ;  सिम्त = तरफ़ ;  हार-सिंगार = हरसिंगार ;  क़फ़से - तायराने - तेज़ - ज़बीं = तेज़ बोलनेवाले परिंदों के पिंजरे ;  आवेज़ां = सुसज्जित 


शायर - मिर्ज़ा 'शौक़' लखनवी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मिर्ज़ा 'शौक़' लखनवी में फ़रेबे-इश्क़ से 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, 2010

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