सुनिलऽ हमार कहल, मन बा तोहार दहल ;
उमिर मोहन के नादान बा हो गोरिया !
कइसे हेराइल बूध, बोलत नइखू बोली सूध ;
नखऊ बिचार बड़-छोट के हो गोरिया !
बबुआ नादान बाटे, लगलू कसीदा काटे ;
झूठहूँ के लहरा लगवलू हो गोरिया !
झगरे के हऊ मन, कतिना बा तोरा धन ;
हन-हन झन-झन छोड़ि दऽ हो गोरिया !
नाहीं त जुलुम होई, राजाजी से कही कोई ;
तब नाहीं बसबू नगर में हो गोरिया !
लगन हमार लखि, जरत-मरत बाडू सखी ;
अनभल(अशुभ) छोड़ि दऽ मनावल हो गोरिया !
परल बाडू हाथवा में, चलऽ हमरा साथवा में ;
कहब तोहरा भाई-भउजाई से हो गोरिया !
चलऽ बबुआ दूनों भइया, जहँवाँ इनिकर हवहिन मइया ;
नीके पुरवासाठ करिके छोड़ब हम हो गोरिया !
मुँहवाँ के राखऽ लाली, काली कलकत्ता वाली ;
कहत 'भिखारी' नाई गाइ के हो गोरिया !
कवि - भिखारी ठाकुर
किताब - भिखारी ठाकुर रचनावली
प्रकाशक - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 2005
यह गीत 'राधेश्याम बहार' (कृष्ण-लीला या रास-लीला) संगीत-नृत्य रूपक से लिया गया है और यशोदा का कथन है। गोकुल की युवतियाँ माँ यशोदा से कृष्ण की छेड़छाड़ की शिकायत करती हैं तो यशोदा कृष्ण से पूछती हैं कि "बबुआ सुनहु बात, डगर आवत-जात ; केकरो से बोले के गरज का दुलरुआ?" इस पर कृष्ण अपनी सफाई देते हैं कि सखी ही उन्हें तंग कर रही थीं और "केहू हाथ धइल कसि के, केहू बोलल हँसि-हँसि के ; उटुकी-खुटुकिया (उकसानेवाली) चलावल केहू हो मइया !" इतना सुनना था कि "यशोदाजी बेटा का कहला में आ गइली आ लगली सखी लोग के सुनावे" !
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