Translate

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

हिसाब (Hisab by Taslima Nasreen)



कितना दिया प्रेम,
कितने गुलाब-गुच्छ,
कितना समय, कितना सुमद्र,
कितनी रातें काटीं निद्राहीन मेरे लिए
कितने बहाए अश्रु -
यह सब जिस दिन घनघोर आवेग में 
सुना रहे थे मुझे,
समझाना चाह रहे थे कि कितना
प्रेम करते हो मुझे, उसी दिन
लिया था समझ मैंने कि अब
तुम रत्ती भर प्यार नहीं करते मुझे.
प्रेम ख़त्म होने पर ही मनुष्य बैठता है
करने हिसाब, तुम भी बैठे हो.
प्रेम तभी तक प्रेम है
जब तक वह रहता है अंधा, बधिर,
जब तक वह रहता है बेहिसाब.


कवयित्री - तसलीमा नसरीन 
बाँगला भाषा से हिन्दी अनुवाद - प्रयाग शुक्ल 
संकलन - मुझे देना और प्रेम
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012

बुधवार, 29 अगस्त 2012

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट (Postmortem ki report by Sarveshwar Dayal Saxena)



गोली खाकर
एक के मुँह से निकला -
'राम' l

दूसरे के मुँह से निकला - 
'माओ' l

लेकिन
तीसरे के मुँह से निकला -
'आलू' l

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे l


कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
संकलन - खूँटियों पर टँगे लोग
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1982

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

अयाचित झोंका (Ayachit jhonka by Vijaydevnarayan Sahi)




हो गया कम्पित शरद के शान्त, झीने ताल-सा 
      तन 
      आह, करुणा का अयाचित एक झोंका 
सान्त्वना की तरह मन की सतह पर लहरा गया
      कहाँ से उपजा ?
      कहाँ को गया ?



कवि - विजय देव नारायण साही
संकलन - मछलीघर
प्रथम संस्करण के प्रकाशक - भारती भण्डार, इलाहाबाद, 1966
दूसरे संस्करण के प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1995

सोमवार, 27 अगस्त 2012

हल्लो राजा (Hello Raja by Rakesh Ranjan)



हल्लो राजा !
कभी-कभी तो कठिन धूप में
चल्लो राजा !
कभी-कभी तो चिन्ता-भय से 
गल्लो राजा !
कभी-कभी तो जठरागिन में
जल्लो राजा !

जब तिनके-भर सुख की खातिर
स्याह जंगलों-जैसे दुक्खों से जुज्झोगे
तब बुज्झोगे 
परजा होना खेल नहीं है
किसी जनम में
इसका सुख से मेल नहीं है !

मैंने पूछा :
राजा, कैसी है तुकबन्दी ?
राजा बोले :
बेहद गन्दी !



        कवि - राकेश रंजन
        संकलन - अभी-अभी जनमा है कवि 
        प्रकाश - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2007


रविवार, 26 अगस्त 2012

क़स्बे में दिन ढले (Kasbe mein din dhale by Raghuvir Sahay)



क़स्बे में दिन ढले 
युवती के चेहरे पर
लालटेन की आभा :
ऊब और कोहरे में
खोया हुआ आँगन 
करती है पार उसे रोशनी लिए युवती.


कवि - रघुवीर सहाय 
संकलन - कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1989

शनिवार, 25 अगस्त 2012

प्रेमचंद घर में (Premchand ghar mein by Shivrani Devi Premchand)



    उन दिनों मैं अकेली महोबे में रहती थी. वे जब दौरे पर रहते तो मेरे साथ ही सारा समय काटते और अपनी रचनाएँ सुनाते. अंग्रेजी अखबार पढ़ते तो उसका अनुवाद मुझे सुनाते. उनकी कहानियों  को सुनते-सुनते मेरी भी रुचि साहित्य की ओर हुई. जब वे घर पर होते, तब मैं कुछ पढ़ने के लिए उनसे आग्रह करती. सुबह का समय लिखने के लिए वे नियत रखते. दौरे पर भी वे सुबह ही लिखते. बाद को मुआइना करने जाते. इसी तरह मुझे उनके साहित्यिक जीवन के साथ सहयोग करने का अवसर मिलता. जब वे दौरे पर होते, तब मैं दिन भर किताबें पढ़ती रहती. इस तरह साहित्य में मेरा प्रवेश हुआ.
    उनके घर रहने पर मुझे पढ़ने की आवश्यकता न प्रतीत होती. मुझे भी इच्छा होती कि मैं कहानी लिखूँ. हालाँकि मेरा ज्ञान नाममात्र को भी न था, पर मैं इसी कोशिश में रहती कि किसी तरह मैं कोई कहानी लिखूँ. उनकी तरह तो क्या लिखती. मैं लिख-लिखकर फाड़ देती. और उन्हें दिखाती भी नहीं थी. हाँ, जब उनपर कोई आलोचना निकलती तो मुझे उसे सुनाते. उनकी अच्छी आलोचना प्रिय लगती. काफी देर तक यह खुशी रहती. मुझे यह जानकार गर्व होता कि मेरे पति पर यह आलोचना निकली है. जब कभी उनकी कोई कड़ी आलोचना निकलती, तब भी वे उसे बड़े चाव से पढ़ते. मुझे तो बहुत बुरा लगता.
    मैं इसी तरह कहानियाँ लिखती और फाड़कर फेंक देती. बाद में गृहस्थी में पड़कर कुछ दिनों के लिए मेरा लिखना छूट गया. हाँ, कभी कोई भाव मन में आता तो उनसे कहती, इस पर आप कोई कहानी लिख लें. वे जरूर उस पर कहानी लिखते.
    कई वर्षों के बाद, 1913 के लगभग, उन्होंने हिन्दी में कहानियाँ लिखना शुरू किया. किसी कहानी का अनुवाद हिन्दी में करते, किसी का उर्दू में. 
    मेरी पहली 'साहस' नाम की कहानी चाँद में छपी. मैंने वह कहानी उन्हें नहीं दिखाई. चाँद में आपने देखा. ऊपर आकर मुझसे बोले - अच्छा, अब आप भी कहानी-लेखिका बन गईं ? बोले - यह कहानी आफिस में मैंने देखी. आफिसवाले पढ़-पढ़कर खूब हँसते रहे. कइयों ने मुझ पर संदेह किया. 
    तब से जो कुछ मैं लिखती, उन्हें दिखा देती. हाँ, यह खयाल मुझे जरूर रहता कि कहीं मेरी कहानी उनके अनुकरण पर तो नहीं जा रही हो. क्योंकि मैं लोकापवाद को डरती थी.
    एक बार गोरखपुर में डा. एनी बेसेंट की लिखी हुई एक किताब आप लाए. मैंने वह किताब पढ़ने के लिए माँगी. आप बोले - तुम्हारी समझ में नहीं आएगी. मैं बोली - क्यों नहीं आएगी ? मुझे दीजिए तो सही. उसे मैं छः महीने तक पढ़ती रही. रामायण की तरह उसका पाठ करती रही. उसके एक-एक शब्द को मुझे ध्यान में चढ़ा लेना था. क्योंकि उन्होंने कहा था कि यह तुम्हारी समझ में नहीं आएगी. मैं उस किताब को खतम कर चुकी तो उनके हाथ में देते हुए बोली - अच्छा, आप इसके बारे में मुझसे पूछिए. मैं इसे पूरा पढ़ गई. आप हँसते हुए बोले - अच्छा !
    मैं बोली - आपको बहुत काम रहते भी तो हैं. फिर बेकार आदमी जिस किसी चीज के पीछे पड़ेगा, वही पूरा कर देगा. 
    मेरी कहानियों का अनुवाद अगर किसी और भाषा में होता तो आपको बड़ी प्रसन्नता होती. हाँ, उस समय हम दोनों को बुरा लगता, जब दोनों से कहानियाँ माँगी जातीं. या जब कभी रात को प्लाट ढूँढ़ने के कारण मुझे नींद न आती, तब वे कहते - तुमने क्या अपने लिए एक बला मोल ले ली. आराम से रहती थीं, अब फिजूल की एक झंझट खरीद ली. मैं कहती - आपने नहीं बला मोल ले ली ! मैं तो कभी-कभी लिखती हूँ. आपने तो अपना पेशा बना रखा है.
    आप बोलते - तो उसकी नकल तुम क्यों करने लगीं ?
    मैं कहती - हमारी इच्छा ! मैं भी मजबूर हूँ. आदमी अपने भावों को कहाँ रखे ?
    किस्मत का खेल कभी नहीं जाना जा सकता. बात यह है कि वे होते तो आज और बात होती. लिखना-पढ़ना तो उनका काम ही था. मैं यह लिख नहीं रही हूँ, बल्कि शांति पाने का एक बहाना ढूँढ़ रखा है. 


लेखिका - शिवरानी देवी
किताब - प्रेमचंद घर में 
प्रकाशक - रोशनाई प्रकाशन, पश्चिम बंगाल, 2005

इस किताब में प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने अपने घरेलू जीवन के छोटे-छोटे संस्मरण दर्ज किए हैं. यह पहली बार 1944 में छपी थी और सका दूसरा संस्करण हिन्दुस्तानी पब्लिशिंग हाउस, इलाहाबाद से 1952 में. दूसरे संस्करण को तैयार करते समय शिवरानी देवी ने अपने नाती प्रबोध कुमार की मदद से किताब में कुछ चीजें जोड़ी-घटाई थीं. पता नहीं उन्हें शामिल किया गया था या नहीं, लेकिन उसी संस्करण के आधार पर रोशनाई प्रकाशन की पांडुलिपि बनी थी. मेरा खयाल है कि प्रस्तुत प्रसंग से वास्तविक जीवन की परतों को समझा जा सकता है. 

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

मेरा घर (Mera ghar by unknown Sanskrit poet)



हस्तप्राप्यतृणोज्झिता: प्रतिपयोवृत्तिस्खलद्भित्तयो 
दूरालम्बितदारुदन्तुरमुखाः पर्यन्तवल्लीवृता: l    
वस्त्राभावविलीनसत्रपवधूदत्तार्गला निर्गिर-
स्त्यज्यन्ते चिर्शून्यविभ्रमभृतो भिक्षाचरैर्मद्गृहा: ll    

यह मेरा घर है
हाथ में आया तिनका भी
टिक नहीं पाता इसमें रहकर
हर बरसात में इसमें दीवारें ढहती जाती हैं
बहुत नीचे तक झुक आई बल्लियों से
दाँत निपोरता है मेरा घर l  
चारों ओर से इसे जकड़ रखा है बेलों ने l

भीतर ही भीतर डोलती है, दुबकी सी रहती है -
इस घर की बहू
तन पर कपड़ों की कमी के कारण
वह झट से चढ़ा देती है साँकल
जब भी मैं जाता हूँ इस घर से बाहर,
या आता हूँ बाहर से घर में l
बोलता नहीं है यह घर
गूँगा सा घर है मेरा l   
बहुत समय से बंद हैं इसकी किलकारियाँ
बहुत समय से पसरा है इसमें सूनापन 
बहुत दूर से इसे देख कर
आगे बढ़ जाते हैं भिखमंगे l    


कवि - अज्ञात

संग्रह - संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा  
चयन और संस्कृत से हिन्दी अनुवाद - डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी
प्रकाशक - रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा, मध्य प्रदेश, 2000

डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी के शब्दों में संस्कृत की लोकधर्मी काव्य परम्परा "राजसभा की सँकरी दुनिया के बाहर भारतीय जनता के विराट् संसार से उपजी थी. इसे वे अनाम और अनजाने कवि विकसित करते रहे, जिन्हें दरबारों में आश्रय नहीं मिला, प्रसिद्धि और सुरक्षा नहीं मिली. राजकीय लेखकों (लिपिकारों) द्वारा उनकी रचनाओं की पाण्डुलिपियाँ तैयार करवा कर ग्रन्थभण्डारों में नहीं रखी गयी. भौतिक सुरक्षा के अभाव में उनकी रचनाओं का बड़ा हिस्सा निश्चय ही कालकवलित हो गया, पर यह पूरी परम्परा अत्यंत प्राणवान और कालजयी थी, अपने सामर्थ्य से वह जीती रही. कालिदास, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के समानान्तर रची जाती रही भारतीय जनसामान्य की कविता का कुछ थोड़ा सा अंश सुभाषित संग्रहों में संकलित मुक्तकों के माध्यम से बच पाया है. पर जितना बचा है, वह अभिजात-कविता से अलग अपनी प्रखरता और पहचान स्थापित करता है." प्रस्तुत पद्य लोकधर्मी परम्परा के प्रतिनिधि ग्रन्थ माने जानेवाले श्रीधर के 'सदुक्तिकर्णामृत' (1205 ई.) नामक सुभाषित संग्रह में संकलित है जिसके रचयिता के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है.

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

मन : एक परदा (Man : Ek Parada by Bhagavat Sharan Jha 'Animesh')



मन 
लम्बे अर्से से
टँगा एक परदा है
जिस पर पड़ गई है धूल

हो चुका है धीरे-धीरे
फटा-पुराना
खो चुका है
सहज चटख रंग

थका-हारा बेचारा
काट रहा है
आखिरी दिन

अब जीर्णता का भार
सहा नहीं जाता
बहुत भीतर तक दुखते हैं
पैबन्द

साथ छोड़ चुके हैं
रँगरेज और जुलाहे
अब सपने में भी
हाल नहीं पूछता है बजाज

अब तो यह केवल
शाम की उदास हवाओं में
फड़फड़ाता है

जितना फड़फड़ाता है
उतना ही तार-तार हुआ जाता है.

कवि - भागवत शरण झा 'अनिमेष'
संकलन - जनपद : विशिष्ट कवि  
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2006

वैशाली जनपद के कवियों के इस संकलन की भूमिका में दिमित्री गुलिया नामक सोवियत लोककवि के हवाले से कहा गया है कि "भाषाएँ छोटी या बड़ी नहीं होतीं. वे सब सोना होती हैं, भले उनमें मात्रा का अंतर हो." यही बात जनपद विशेष के कवियों पर लागू करते हुए कहा गया है कि "यदि कवि सच्चा हुआ तो वह भले कालिदास या तुलसीदास या निराला न हो, लेकिन वह होता है उन्हीं की बिरादरी का. वे यदि सोने का पहाड़ हैं, तो यह अपने अपरिचय और नएपन में भी सोने का कण. स्पष्टतः गुणवत्ता की दृष्टि से दोनों एक हैं." इस कथन की सच्चाई भागवत शरण झा 'अनिमेष' की एक कविता से भी प्रकट हो जाती है.


बुधवार, 22 अगस्त 2012

प्यार : एक छाता (Pyar : Ek Chhata by Sarveshwar Dayal Saxena)



विपदायें आते ही,
खुलकर तन जाता है ;
हटते ही
चुपचाप सिमट ढीला होता है ;
वर्षा से बचकर
कोने में कहीं टिका दो,
प्यार एक छाता है
आश्रय देता है, गीला होता है.

कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
संकलन - कविताएँ-2 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1978

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की 'कुआनो नदी' और 'जंगल का दर्द' से पहले की सारी कविताएँ दो खण्डों में उपलब्ध हैं. प्रस्तुत कविता सर्वेश्वरदयाल के 'एक सूनी नाव' (1963 -1966) नामक संग्रह से लेकर कविताओं के दूसरे खंड में संकलित की गई है. 


मंगलवार, 21 अगस्त 2012

खोङ्ममेलै (Khongmmelai by Dr.Lamabam Kamal Singh)



बढ़ता न जल में उगता न थल में
लेता आसरा पेड़-पौधों का
गुँथता न माला में, हठी, सजता न गुलदस्ते में
घबराता पवन से, शर्माता भ्रमर से 
नत सूर्योदय पर, मुरझाता धूप में
न लता, न कहा जा सकता पौधा ही
गेंदा सा रंग, रूप येरुमेलै सा
काठी कम्बोङ् सी, पत्ते कबाक से 
खिलता न जल पर, डूबने का भय ?
खिलता न थल पर, कुचलने का डर ?
गोपित सुगन्ध, भय है भ्रमर का ?
छिपा है वृक्ष पर, तोड़े जाने से आशंकित ?
पंक्ति में विकसित, एकाकीपन से भीत ?
वामनी आकार धरा, आँधी के डर से ?
रहित सुस्वादु फलों से, भयभीत भार से ?
उत्फुल्ल नहीं अधिक, डर है उपहास का ?
रहे काँटों में या घिरा झाड़ियों से
बना दृष्टि-केन्द्र, खिला जहाँ भी !
छिपना क्या लाभकर, रूप ही जब बैरी है
देवालय के निकट उगो, कवि के हृदय में खिलो
कभी भी व्यापे न थोड़ा भी डर
अनुभव करोगे हृदय में जीवन-भर शान्ति


खोङ्ममेलै - गेंदई रंग का आर्किड विशेष, येरुमेलै - लाल और सफ़ेद रंग के मिश्रणवाला आर्किड, कम्बोङ् - पानी में उगनेवाली घास, जिसके पत्ते तलवार की भाँति होते हैं. जब ताना थोड़ा मोटा हो जाता है तो इसके भीतर काला सा पदार्थ भर जाता है, जिसे कच्चा या तलकर या भूनकर खाया जाता है, कबाक - चौड़ी तलवार विशेष



मणिपुरी कवि - डॉ. लमाबम कमल सिंह
किताब - कमल : सम्पूर्ण रचनाएँ
मणिपुरी भाषा से हिन्दी अनुवाद - सिद्धनाथ प्रसाद 
संपादक - डॉ. देवराज
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2006


डॉ. कमल (1899 -1935) कवि, कहानीकार, नाटककार सब थे. उनकी सम्पूर्ण रचनाओं को एक जिल्द में लानेवाले डॉ. देवराज का मत है कि  "नवजागरणकालीन लेखकों में कमल का रंग और प्रभाव सबसे भिन्न है...अठारह कविताओं का उनका संग्रह 'लै परेङ्' (1929) मणिपुरी भाषा का प्रथम आधुनिक काव्य-संग्रह है." 'लै परेङ्' यानी पुष्प-माला कितनी खूबसूरत होगी इसका अंदाज़ा इस एक कविता से हो जाता है.

सोमवार, 20 अगस्त 2012

कामाकुरा में बुद्ध (The Buddha At Kamakura by John Drew)



तुम्हें मर्दुमशुमारी (जनगणना) का फॉर्म 
भरना होगा,
उन्होंने बुद्ध को कहा
नाम : शाक्य मुनि
पता : पार्क, कामाकुरा, जापान
जन्म-तिथि : नामालूम 
शायद 563 ई.पू.
जन्म-स्थान : कपिलवस्तु, भारत
जन्म-प्रमाणपत्र : उपलब्ध नहीं
पहचान पत्र : कोई नहीं
नागरिकता देने के आधार से संबंधित दस्तावेज़ : नहीं
सिर्फ दफ्तरी टिप्पणी के आगे 
उन्होंने लिखा :
कोई दस्तावेज़ नहीं, एशियाई, छद्म नाम से रह रहा है
सुझाव : प्रत्यावर्तन (वापसी)


अंग्रेज़ कवि - जॉन ड्र्यू 
संकलन - द बुद्धा ऐट कामाकुरा
प्रकाशक - कैम्ब्रिज पोएट्री वर्कशॉप संस्करण, कैम्ब्रिज, इंगलैंड, 1988
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

जापान के कामाकुरा नामक जगह में तेरहवीं शताब्दी की बुद्ध की कांस्य की विश्वविख्यात विशाल प्रतिमा है. उसको लक्ष्य करके ही जॉन ड्र्यू ने इस संकलन की सारी कविताएँ लिखी हैं जिमें दर्शन और हास्य-व्यंग्य का गज़ब सम्मिश्रण मिलता है.

रविवार, 19 अगस्त 2012

रैदास की बानी (Raidas ki bani)



या रामां एक तू दानां, तेरा आदि वेषना l  
तू सुलतान, सुलताना, बन्दा सकिस्ता अजाना ll टेक ll
मैं बेदियानत, बे नर दरमन्द बरखुरदार l 
बे अदब बदबख्त वीरां, बे अकलि बदकार ll 1 ll
मैं गुनहगार, गुमराह, गाफिल, कमदिलां करतार l
तू दरकदर, दरियाब दिल, मैं हरिसिया हुसियार ll 2 ll
मैं हस्त खस्त खराब खातिर अन्देसा बिसियार l
रैदास दासहिं बोल साहब देहु अब दीदार ll 3 ll  


कवि - रैदास (रविदास)
किताब - संत रैदास 
लेखक - योगेन्द्र सिंह
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण - 2004

मध्यकालीन भक्ति साहित्य में रैदास का नाम ख्यात है. उनके स्फुट पद, साखियाँ और प्रबंधात्मक रचना 'प्रह्लाद चरित' उपलब्ध हैं, भले ही उनमें पाठ भेद मिलते हैं. उनका जन्म अनुमानतः संवत् 1500 में बनारस के पास हुआ था. रैदास ने अपने बारे में खुद लिखा है -"मेरी जाति कुटवांढला ढोर ढोवंत नितहिं बनारसी आसपासा" और "हम शरणागति राम राई को, कह रैदास चमारा ll"   

शनिवार, 18 अगस्त 2012

पाया है किछु पाया है (Paya hai kichhu paya hai by Bulleh Shah)



पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.
कहूँ वैर पड़ा कहूँ बेली हो,
कहूँ मजनूँ हो कहूँ लेली हो,
कहूँ आप गुरु कहूँ चेली हो,
आप आप का पन्थ बताया है.
पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.

कहूँ मस्जिद का वरतारा है,
कहूँ बणिया ठाकुरद्वारा है,
कहूँ बैरागी जटधारा है,
कहूँ शेख नबी बण आया है.
पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.

कहूँ तुर्क हो कलमा पढ़ते हो,
कहूँ भगत हिन्दू जप करते हो,
कहूँ घोर गुफा में पड़ते हो,
कहूँ घर घर लाड लडाया है.
पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.

बुल्ला मैं थीं बेमुहताज होया,
महाराज मिलिआ मेरा काज होया,
दरस पीआ का मुझहे इलाज होया,
आपे आप मैं आपु समाया है.
पाया है किछु पाया है, मेरे सतगुर अलख जगाया है.


रचनाकार - बुल्ले शाह
संकलन - बुल्लेशाह की काफियां
संपादक - डा. नामवर सिंह 
श्रृंखला संपादक - डा. मोहिन्द्र सिंह 
प्रकाशक - नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज़ के सहयोग से 
अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, 2003   
  

पंजाबी सूफी शायर बुल्ले शाह (1680–1757) कादरिया सिलसिले से जुड़े हुए थे. 'बुल्लेशाह की काफियां' किताब के परिचय में कुलजीत शैली ने लिखा है, अपने रब और अपने मुर्शिद (गुरु) शाह इनायत कादरी के प्रति इश्क के भावात्मक वेग ने उनकी शायरी को नई भंगिमा दी. इस "शायरी के वस्त्र देसी काफियों के हों या विदेशी सिहरफियों के, यह दोहड़ों, गाँठों, बारहमासों के रूप में लिखी जाए या अठवारे के रूप में, उसकी वाणी मानवता की मुक्ति के लिए है." इसकी मस्ती और शोख अंदाज़ के कायल तो हम सभी हैं ही.

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

इन्द्रसभा (Indrasabha by Syed Agha Hasan 'Amanat')




श्रीगणेशायनमः 
अथ इन्द्रसभा अमानत 
प्रारम्भ :
 

सभा में दोस्तो इन्दर की आमद आमद है l  परीजमालों के अफ्सर की आमद आमद है 
ख़ुशी से चहचहे लाज़िम है सूरते बुलबुल l अब इस चमन में गुलेतर की आमद आमद है
फ़रोगे हुस्न से आँखों को अब करो रौशन l ज़मी पै मेहर मुनव्वर की आमद आमद है
दुजानू बैठो करीने के साथ महिफ़िल में ll परी की देव की लश्कर की आमद आमद है
ज़मीं पै आयेंगी राजा के साथ परियाँ ll सितारों के महे अनवर की आमद आमद है
ग़ज़ब का गाना है और नाच है क़यामत का l बहारे फ़ितूनए महिशर की आमद आमद है
बयाँ मैं राजा की आमद का क्या करूं उस्ताद l जिगर की जान की दिलबर की आमद आमद है 
            चौबोला अपने हस्बेहाल ज़बानी राजा इन्द्र के.
राजा हूं मैं कौम का और इन्दर मेरा नाम ll बिन परियों की दीद के मुझे नहीं आराम 
सुनो रे मेरे देव रे दिल को नहीं करार ll जल्दी मेरे वास्ते सभा करो तैयार 
तख़्त बिछाओ जगमगा जल्दी से इस आन l मुझ को शबभर बैठना महिफ़िल के दर्म्यान
मेरो सिंगल दीप में मुल्कों मुल्कों राज l जी मेरा है चाहता कि जलसा देखूं आज
लाओ परियों को अभी जल्दी जाकर हाँ l बारी बारी आन कर मुजरा करैं यहाँ 
            आमद पुखराज परी की बीच सभा के.
महिफ़िले राजा में पुखराज परी आती है l सारे माशूक़ों  की सिरताज परी आती है 
जिस का साया न कभी ख़्वाब में देखा होगा  आदमीज़ादों में वह आज परी आती है 
दौलते हुस्न से हो जायगा आलम मामूर ll करने इस बज़्म में अब राज परी आती है 
रंग हो ज़र्द हसीनों का न क्यों कर उस्ताद ll गुल है महिफ़िल में कि पुखराज परी आती है 
......


लेखक - सैयद आग़ा हसन 'अमानत'
स्रोत - नटरंग, खंड-23, अंक-91
संस्थापक संपादक - नेमिचंद्र जैन 
संपादक - अशोक वाजपेयी, रश्मि वाजपेयी  
अतिथि संपादक - पीयूष दईया 

सैयद आग़ा हसन अमानत (1815-1858) उर्दू के मशहूर शायर और नाटककार हैं. उनका संगीत नाटक इन्द्रसभा (या इन्दर सभा) 1852 में रचा गया था. महेश आनंद बताते हैं कि इसमें "मध्ययुगीन पारंपरिक नाट्यरूपों-रामलीला, रासलीला, भड़ैती, भगतबाजी और शहरी परम्परा में से दास्तानगोई की बैठकों, मरसियाख़्वानी और मुजरों की महफ़िलों के तत्त्व शामिल" किए गए हैं. इसके आधार पर 1932 में इसी नाम से फिल्म बनी थी. कई भाषाओं में इसका अनुवाद भी किया गया है.

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

संभाषण (Sambhashan by Balkrishn Sharma 'Naveen')



आज चाँद ने खुश-खुश झाँका,
काल-कोठरी के जँगले से ;
गोया मुझसे पूछा हँसकर
कैसे बैठे हो पगले-से ?

कैसे ? बैठा हूँ मैं ऐसे -
कि मैं बंद हूँ गगन-विहारी ;
पागल-सा हूँ ? तो फिर ? यह तो
कह कर हारी दुनिया बेचारी ;

मियाँ चाँद, गर मैं पागल हूँ -
तो तू है पगलों का राजा ;
मेरी तेरी खूब छनेगी,
आ जँगले के भीतर आ जा ;

लेकिन तू भी यार फँसा है -
इस चक्कर के गन्नाटे में ;
इसीलिए तू मारा-मारा -
फिरता है इस सन्नाटे में ;

अमाँ, चकरघिन्नी फिरने का -
यह भी है कोई मौजूँ छिन ?
गर मंजूर घूमना ही है,
तो तू जरा निकलने दे दिन ;

यह सुन वह आदाब बजाता -
खिसक गया डंडे के नीचे ;
और कोठरी में 'नवीन' जी
लगे सोचने आँखें मीचे.
                       - 1933

कवि - बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
संग्रह - पदचिह्न 
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य 
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006

बुधवार, 15 अगस्त 2012

आलोचनात्मक रवैया (On the Critical Attitude by Bertolt Brecht)





     
            आलोचनात्मक रवैया 
            कई लोगों को व्यर्थ प्रतीत होता है 
            इसलिए कि वे राज्य को पाते हैं 
            अपनी आलोचना के प्रति असंवेदनशील           
            लेकिन इस मामले में जो निष्फल है
            
वह दरअसल सिर्फ एक कमज़ोर रवैया है
            
आलोचना को शस्त्र दो            
            और उससे राज्य ध्वस्त किए जा सकते हैं

           
 किसी नदी को नहरों में बाँधना
            
एक फलदार वृक्ष की कलम लगाना
           
किसी एक व्यक्ति को शिक्षित करना
            
एक राज्य को बदलना
            
ये सब सार्थक आलोचना के उदाहरण हैं
           
 और साथ ही कला के उदाहरण भी.                   



              जर्मन कवि - बर्तोल्त ब्रेख्त 
            स्रोत - पोएमहंटर डॉट कॉम
            अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद    
  

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

बचपन के दोस्त जयदेव गुप्ता के नाम पत्र (Bhagat Singh's letter to Jaydev Gupta, a Childhood friend)



सेण्ट्रल जेल, लाहौर
3 जून, 1930
मेरे प्रिय श्री जयदेव,
               कृपा करके मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार कीजिए, कपड़े के उन जूतों और सफ़ेद पालिश की शीशी के लिए जो आपने भेजे हैं. आपके शब्दों में (जैसा कि श्री कुलबीर ने कहा) मैं आपको कुछ अन्य चीजें लाने को यह पत्र लिख रहा हूं. मुझे विश्वास है कि आप इसे महसूस नहीं करेंगे. कृपया देख लें कि क्या आप श्री बी.के. दत्त के लिए कपड़े का एक और जूता भेजने की व्यवस्था कर सकते हैं (साइज नं. सात), लेकिन दुकानदार से वापसी की शर्त पर लेना, शायद इनके पैर में फिट न आए. यह बात मैंने अपने लिए लिखते समय ही लिखी होती, पर श्री दत्त उस दिन सरल भाव (ईजी मूड) में नहीं थे. लेकिन मेरे लिए इसे अकेले पहनना मुश्किल है. इसलिए मैं आशा करता हूं कि अगली मुलाक़ात के समय एक और जूता यहां होगा. 
               साथ ही कृपया एक ट्वैल शर्ट (कमीज) जिसका साइज छाती 34 और कमर 29 हो, भेज दें. उस पर शेक्सपीरियन कालर हो और आधी आस्तीन हो. यह भी श्री दत्त के लिए चाहिए. क्या आप सोचेंगे कि हम जेल में भी अपने रहन-सहन के खर्चीले ढंग पर रोक नहीं लगा सके ? अंततः यह आवश्यकताएं हैं, विलासिताएं नहीं. नहाने और व्यायाम करने के लिए किसी मुलायम कपड़े के दो लंगोट भी भेज दें और कपड़े धोने के साबुन की कुछ टिकियाएं भी. साथ ही कुछ बादाम और स्वान इंक की एक शीशी भी.
              सरदार जी (पिता जी) के बारे में क्या खबर है ? क्या वे लुधियाना से वापस आ गए हैं ? इन दिनों में कचहरी बन्द रहेगी और मुकदमा आगे नहीं बढ़ा. यदि वे नहीं आए तो उन्हें लाने के लिए किसी को भेज दें. जो हो, उनके और मेरे मुकदमे का अन्त करीब ही है. कह नहीं सकता कि हमें एक-दूसरे को मिलने का और अवसर मिलेगा या नहीं, इसलिए उन्हें तुरंत बुला लें, ताकि वे इस सप्ताह में मुझसे दो बार मिल सकें. यदि वे जल्दी ही नहीं आ पा रहे हैं तो कृपा कर कुलबीर और बहन जी को मुझसे मुलाकात के लिए कल या परसों भेज दें. मेरे मित्रों को मेरी याद दिलाना. क्या आप फारसी का एक कायदा उर्दू अनुवाद सहित भेजने की व्यवस्था कर सकेंगे ? चार आने की सूची भी भेज दें.
तुम्हारा भगतसिंह 


लेखक - भगतसिंह 
किताब - भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज 
संपादक - चमनलाल 
प्रकाशक - आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा, 2004

सोमवार, 13 अगस्त 2012

क्लैरा रिल्के के नाम ख़त (Letter to Clara Westhoff Rilke by Rainer Maria Rilke)



होटल द फ़्लोरेंस, वीआरेग्गिओ, पीसा के पास (इटली),अप्रैल 8, 1903 
                                                                                                                                                                                                                                                                        

फिर एक व्यग्र और आक्रामक दिन. समुद्र में तूफ़ान पर तूफ़ान. भागती दौड़ती रोशनी. जंगल में रात. चारों ओर शोर. मैं पूरी सुबह जंगल में घूमता रहा. चार पाँच चौंधियाए दिनों के बाद वहाँ का अँधेरा, शीतलता और ठण्डी हवाओं का स्पर्श मेरी इन्द्रियों को सुखद लगा. तुम इस जंगल की कल्पना करो-बहुत लम्बे तनों वाले, घने, शाखाएँ फैलाए सीधे उठते हुए चीड़ के पेड़ और ऊँचे पहुँचकर उनके सर पर फैलती शाखाएँ. नीचे की ज़मीन झरी हुई तीलियों से पूरी तरह काली, उस पर खड़ी लम्बी कँटीली ब्रूमबुश की झाड़ियाँ...झाड़ियों पर पीले फूलों की लदान...लदान पर लदान. इस ठण्डी अँधेरी साँझ में यह झूमता डोलता पीला रंग ऐसे लग रहा था जैसे यह अकेला जंगल अन्दर से दीप्त हो गया हो. मैं घण्टों इधर से उधर घूमता रहा (धूप खाने के बाद मैं नंगे पाँव इधर निकल आया था) और देर तक सोचता रहा....मुझे लगता है जहाँ तक सम्भव हो हर किसी को अपने ही कर्म में अपने जीवन का केन्द्र ढूँढ सकना चाहिए और उसी केन्द्र से विकसित होते-होते, विस्तृत होना चाहिए. यह ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया को कोई देख न रहा हो. अपना अभिन्न व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं, बल्कि अपना आप भी नहीं. अपने से परे होकर देखने की क्रिया में एक प्रकार की शुद्धता और शुचिता है. जब दृष्टि, किसी प्रकृतिप्रदत्त वस्तु पर लगी हो, उसे आत्मसात कर रही हो और अपने हाथ स्वतः ही, बहुत नीचे, डरते टटोलते आह्लादित होते चेहरे से दूर, कहीं बहुत दूर चले गये हों ; तो चेहरा सितारे की तरह रह जाता है, जो देखता नहीं केवल 'चमकता' है. मुझे लगता है मैंने सदा ऐसे ही किया है. मेरी दृष्टि दूर सुदूर की किन्हीं चीज़ों में लिप्त रही है और मेरे हाथ अलग से कहीं और कार्यरत रहे हैं. ऐसा ही होना चाहिए. ऐसा आगे भी होगा पर इसके लिए मुझे इतना एकान्त मिलना चाहिए जितना अब है. 
मेरे एकान्त को पहले उस बिनरौंदे जंगल की तरह सुदृढ़ और सुरक्षित होना चाहिए जिसे पैरों की आहट का कोई डर नहीं होता. उसे हर आग्रह, हर असाधारण मूल्य और हर बाध्यता से रहित होना चाहिए. उसे रोजमर्रा जैसा स्वाभाविक और सामान्य होना चाहिए. विचार जो आएँ चाहे वह कितने भागते हुए हों मेरे एकान्त में मुझसे मिलें और मुझे विश्वस्त मानने के लिए संकल्पित हों. मेरे लिए इससे भयानक कोई दूसरी बात नहीं है कि मैं अपने एकान्त का अभ्यस्त न हो पाऊँ, बल्कि अब तो हो चला हूँ.                                                                                                                                                                                                                          


लेखक - राइनेर मारिया रिल्के
किताब - रिल्के के प्रतिनिधि पत्र 
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - राजी सेठ
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1999   


जर्मन कवि रिल्के (1875 -1926) का गद्य कविता से कम नहीं. और वे कहते हैं, "मेरी कविताएँ मेरी आत्मा की खुशहाली से उपजती हैं. बड़े भूखण्ड, लम्बी सड़कें, नरम दूब, कड़ी सड़कों पर या शुभ्र हिम पर नंगे पाँव चलते होना, गहरे श्वास सुनना, केवल सुनना, घोर निश्शब्दता, लम्बी शामों के प्रति नमित हो सकना यह (ये) सब क्रियाएँ मेरी कविताओं की सम्पत्ति हैं."   

रविवार, 12 अगस्त 2012

मिरातुल-उरूस (Miratul-Uroos by Nazir Ahmad)




लिखने को लोगों ने नाहक़ बदनाम कर रखा है कि मुश्किल है मुश्किल. कुछ भी मुश्किल नहीं है. लेकिन फ़र्ज़ करो कि पढ़ने की निस्बत लिखना कुछ मुश्किल है तो वैसी ही उसकी मुनफ़अतें भी हैं. जो शख़्स पढ़ना जानता है और लिखना नहीं जानता उसकी मिसाल उस गूँगे की सी है जो दुसरे की सुनता और अपनी नहीं कह सकता. अगर कोई शख़्स शुरू-शुरू में किसी किताब से ज़्यादा नहीं एक सतर दो सतर रोज़ नक़ल किया करे और इसी तरह अपने दिल से बनाकर लिखा करे और इस्लाह लिया करे और नक़ल करने और लिखने में झेंपे और झिझके नहीं तो ज़रूर चंद महीनों में लिखना सीख जायगा. खुशख़ती से मतलब नहीं. लिखना एक हुनर है जो ज़रूरत के वक्त बहुत काम आता है. अगर ग़लत हो या हर्फ़ बदसूरत और नादुरुस्त लिखे जायँ तो बेदिल होकर मश्क़ को मौकूफ़ मत करो. कोई काम हो इब्तदा में अच्छा नहीं हुआ करता. अगर किसी बड़े आलिम को एक टोपी कतरने और सीने को दो जिसको कभी ऐसा इत्तिफ़ाक़ न हुआ हो वो ज़रूर टोपी ख़राब करेगा. चलना-फिरना जो तुमको अब ऐसा आसान है कि बेतकल्लुफ़ दौड़ी-दौड़ी फिरती हो, तुमको शायद याद न रहा हो कि तुमने किस मुश्किल से सीखा. मगर तुम्हारे माँ-बाप और बुज़ुर्गों को बखूबी याद है कि पहले तुमको बेसहारे बैठना नहीं आता था. जब तुमको गोद से उतारकर नीचे बिठाते एक आदमी पकड़े रहता था. या तकिये का सहारा लगा देते थे. फिर तुमने गिर-पड़कर घुटनों चलना सीखा. फिर खड़ा होना लेकिन चारपाई पकड़कर. फिर जब तुम्हारे पाँव ज़्यादा मज़बूत हो गए रफ़्ता-रफ़्ता चलना आ गया मगर सदहा मर्तबा तुम्हारे चोट लगी और तुमको गिरते सुना. अब वही तुम हो कि खुदा के फ़ज़्ल से माशा-अल्लाह दौड़ी-दौड़ी फिरती हो. इसी तरह एक दिन लिखना भी आ जायगा. और फ़र्ज़ करो तुमको लड़कों की तरह अच्छा लिखना न भी आया तो बक़दरे ज़रूरत तो ज़रूर आ जायगा और यह मुश्किल तो नहीं रहेगी कि धोबन की धुलाई और पीसने वाली की पिसाई के वास्ते दीवार पर लकीरें खींचती फिरो. या कंकर-पत्थर जोड़कर रखो. घर का हिसाब ओ किताब लेना-देना ज़बानी याद रखना मुश्किल है. और बाज़ मर्दों की आदत होती है कि जो रुपया-पैसा घर में दिया करते हैं उसका हिसाब पूछा करते हैं. अगर ज़बानी याद नहीं है तो मर्द को शुबहा होता है कि यह रुपया कहाँ खर्च हुआ और आपस में नाहक़ बदगुमानी पैदा होती है. अगर औरतें इतना लिखना भी सीख लिया करें कि अपने समझने के वास्ते काफ़ी हो तो कैसी अच्छी बात है.


   लेखक - नज़ीर अहमद  
   किताब - मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण)
   हिन्दी लिप्यंतर - मदनलाल जैन 
   प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1958


'उर्दू भाषा की घरेलू जीवन की शिक्षा देने वाली अमर रचना' के रूप में   मशहूर डिप्टी नज़ीर अहमद का यह छोटा-सा नाविल मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण) वाकई महत्त्वपूर्ण है. इसे उन्होंने अपनी बेटी के पढ़ने के लिए लिखा था. आगे जाकर "यह किताब जिसके अरबी नाम को बदलकर लोगों ने 'अकबरी असग़री की कहानी' कर लिया था, न सिर्फ़ लड़कियों की बल्कि बड़ी उम्र के मर्दों और औरतों की भी सबसे महबूब किताबों में शुमार होती थी." इसमें क्या, अधिकांश जगह लड़कियों की तालीम के मकसद को लेकर बहस की जा सकती है, लेकिन इसके अंदाज़े बयान का जादू सब पर चलके रहता है. इस किताब का पहला बाब यानी अध्याय है - 'तमहीद के तौर पर औरतों के लिखने-पढ़ने की ज़रूरत और उनकी हालत के मुनासिब कुछ नसीहतें'. प्रस्तुत अंश उसी से है.      

शनिवार, 11 अगस्त 2012

गधा (The Ass by Eduardo Galeano )




उसने नवजात यीशु को नाँद में गर्माहट दी, और यही वजह है कि वह सारी तस्वीरों में है, पुआल के बिस्तरे  के बगल  में बड़े-बड़े कानों के साथ पोज़ देते हुए.
गधे की पीठ पर सवार, यीशु हेरोद की तलवार से बच निकले.
गधे की पीठ पर, उन्होंने तमाम ज़िंदगी चक्कर लगाया.
गधे की पीठ पर , उन्होंने धर्मोपदेश  दिया.
गधे की पीठ पर, उन्होंने  जेरुसलम में प्रवेश किया.
तो फिर गधा शायद इतना गधा भी नहीं ?


   लेखक - एदुआर्दो  गैलीयानो 
   स्पैनिश से अंग्रेज़ी अनुवाद - मार्क फ्राइड 
   किताब - मिरर्स 
   प्रकाशक - नेशन बुक्स, न्यूयार्क, 2009
   अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

घर पहुँचना (Ghar pahunchana by Kunwar Narayan)



हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर
अपने अपने घर पहुँचना चाहते 

हम सब ट्रेनें बदलने की 
झंझटों से बचना चाहते

हम सब चाहते एक चरम यात्रा
और एक परम धाम

हम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं
और घर उनसे मुक्ति

सचाई यूँ भी हो सकती है
कि यात्रा एक अवसर हो
और घर एक संभावना

ट्रेनें बदलना
विचार बदलने की तरह हो
और हम जब जहाँ जिनके बीच हों
वही हो
घर पहुँचना


कवि - कुँवर नारायण
संग्रह - कोई दूसरा नहीं
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1993


गुरुवार, 9 अगस्त 2012

शायद (Shayad by Rajkamal Chaudhary)



सरदी की शाम
पार्क में
घने कुहासे की परछाईं में
किसी झाड़ के बीच
किसी पेड़ के नीचे
उन्मादों से तन-मन सींचे
नित्य
किसी परछाईं का परछाईं से
मिलना
घुल-मिल जाना
बहुत भला लगता है तुमको
हम सबको
शायद...

क्योंकि
अँधेरे से हम सबको बहुत प्रेम है
हेम-क्षेम
कि,
क्योंकि अन्ध हम
क्योंकि पिता हम सबका है तम 
क्योंकि उजाले से हम सब डरते हैं
छिपकर पाप सभी करते हैं
लाज एक बंधन है तुमको
हम सबको
शायद... 


*तम - अन्धकार
कवि - राजकमल चौधरी
संग्रह - विचित्रा
संकलन, संपादन - देवशंकर नवीन 
प्रकाशक - राजकाल प्रकाशन, दिल्ली, 2002


सोमवार, 6 अगस्त 2012

हिरोशिमा (Hiroshima by Ajneya)



एक दिन सहसा
सूरज निकला 
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से.

छायाएँ मानव-जन की 
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं - वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में, वह 
बरसा सहसा
बीचो-बीच नगर के :
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गये हों
दसों दिशा में.

कुछ क्षण का वह उदय-अस्त !
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी.
फिर ?
छायाएँ मानव जन की 
नहीं मिटीं लम्बी हो-होकर
मानव ही सब भाप हो गये.
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर 
उजड़ी सड़कों की गच पर.

मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बना कर सोख गया.
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है.
               

कवि - अज्ञेय 
संकलन - सदानीरा, संपूर्ण कविताएँ-2
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1986

दिल्ली-इलाहाबाद-कलकत्ता (रेल में) 10 -12 जनवरी, 1959 को लिखी गई कविता.