होटल द फ़्लोरेंस, वीआरेग्गिओ, पीसा के पास (इटली),अप्रैल 8, 1903
फिर एक व्यग्र और आक्रामक दिन. समुद्र में तूफ़ान पर तूफ़ान. भागती दौड़ती रोशनी. जंगल में रात. चारों ओर शोर. मैं पूरी सुबह जंगल में घूमता रहा. चार पाँच चौंधियाए दिनों के बाद वहाँ का अँधेरा, शीतलता और ठण्डी हवाओं का स्पर्श मेरी इन्द्रियों को सुखद लगा. तुम इस जंगल की कल्पना करो-बहुत लम्बे तनों वाले, घने, शाखाएँ फैलाए सीधे उठते हुए चीड़ के पेड़ और ऊँचे पहुँचकर उनके सर पर फैलती शाखाएँ. नीचे की ज़मीन झरी हुई तीलियों से पूरी तरह काली, उस पर खड़ी लम्बी कँटीली ब्रूमबुश की झाड़ियाँ...झाड़ियों पर पीले फूलों की लदान...लदान पर लदान. इस ठण्डी अँधेरी साँझ में यह झूमता डोलता पीला रंग ऐसे लग रहा था जैसे यह अकेला जंगल अन्दर से दीप्त हो गया हो. मैं घण्टों इधर से उधर घूमता रहा (धूप खाने के बाद मैं नंगे पाँव इधर निकल आया था) और देर तक सोचता रहा....मुझे लगता है जहाँ तक सम्भव हो हर किसी को अपने ही कर्म में अपने जीवन का केन्द्र ढूँढ सकना चाहिए और उसी केन्द्र से विकसित होते-होते, विस्तृत होना चाहिए. यह ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया को कोई देख न रहा हो. अपना अभिन्न व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं, बल्कि अपना आप भी नहीं. अपने से परे होकर देखने की क्रिया में एक प्रकार की शुद्धता और शुचिता है. जब दृष्टि, किसी प्रकृतिप्रदत्त वस्तु पर लगी हो, उसे आत्मसात कर रही हो और अपने हाथ स्वतः ही, बहुत नीचे, डरते टटोलते आह्लादित होते चेहरे से दूर, कहीं बहुत दूर चले गये हों ; तो चेहरा सितारे की तरह रह जाता है, जो देखता नहीं केवल 'चमकता' है. मुझे लगता है मैंने सदा ऐसे ही किया है. मेरी दृष्टि दूर सुदूर की किन्हीं चीज़ों में लिप्त रही है और मेरे हाथ अलग से कहीं और कार्यरत रहे हैं. ऐसा ही होना चाहिए. ऐसा आगे भी होगा पर इसके लिए मुझे इतना एकान्त मिलना चाहिए जितना अब है.
मेरे एकान्त को पहले उस बिनरौंदे जंगल की तरह सुदृढ़ और सुरक्षित होना चाहिए जिसे पैरों की आहट का कोई डर नहीं होता. उसे हर आग्रह, हर असाधारण मूल्य और हर बाध्यता से रहित होना चाहिए. उसे रोजमर्रा जैसा स्वाभाविक और सामान्य होना चाहिए. विचार जो आएँ चाहे वह कितने भागते हुए हों मेरे एकान्त में मुझसे मिलें और मुझे विश्वस्त मानने के लिए संकल्पित हों. मेरे लिए इससे भयानक कोई दूसरी बात नहीं है कि मैं अपने एकान्त का अभ्यस्त न हो पाऊँ, बल्कि अब तो हो चला हूँ.
लेखक - राइनेर मारिया रिल्के
किताब - रिल्के के प्रतिनिधि पत्र
किताब - रिल्के के प्रतिनिधि पत्र
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - राजी सेठ
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1999
जर्मन कवि रिल्के (1875 -1926) का गद्य कविता से कम नहीं. और वे कहते हैं, "मेरी कविताएँ मेरी आत्मा की खुशहाली से उपजती हैं. बड़े भूखण्ड, लम्बी सड़कें, नरम दूब, कड़ी सड़कों पर या शुभ्र हिम पर नंगे पाँव चलते होना, गहरे श्वास सुनना, केवल सुनना, घोर निश्शब्दता, लम्बी शामों के प्रति नमित हो सकना यह (ये) सब क्रियाएँ मेरी कविताओं की सम्पत्ति हैं."
Khud ki khud se pahachan...wah
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