बढ़ता न जल में उगता न थल में
लेता आसरा पेड़-पौधों का
गुँथता न माला में, हठी, सजता न गुलदस्ते में
घबराता पवन से, शर्माता भ्रमर से
नत सूर्योदय पर, मुरझाता धूप में
न लता, न कहा जा सकता पौधा ही
गेंदा सा रंग, रूप येरुमेलै सा
काठी कम्बोङ् सी, पत्ते कबाक से
खिलता न जल पर, डूबने का भय ?
खिलता न थल पर, कुचलने का डर ?
गोपित सुगन्ध, भय है भ्रमर का ?
छिपा है वृक्ष पर, तोड़े जाने से आशंकित ?
पंक्ति में विकसित, एकाकीपन से भीत ?
वामनी आकार धरा, आँधी के डर से ?
रहित सुस्वादु फलों से, भयभीत भार से ?
उत्फुल्ल नहीं अधिक, डर है उपहास का ?
रहे काँटों में या घिरा झाड़ियों से
बना दृष्टि-केन्द्र, खिला जहाँ भी !
छिपना क्या लाभकर, रूप ही जब बैरी है
देवालय के निकट उगो, कवि के हृदय में खिलो
कभी भी व्यापे न थोड़ा भी डर
अनुभव करोगे हृदय में जीवन-भर शान्ति
खोङ्ममेलै - गेंदई रंग का आर्किड विशेष, येरुमेलै - लाल और सफ़ेद रंग के मिश्रणवाला आर्किड, कम्बोङ् - पानी में उगनेवाली घास, जिसके पत्ते तलवार की भाँति होते हैं. जब ताना थोड़ा मोटा हो जाता है तो इसके भीतर काला सा पदार्थ भर जाता है, जिसे कच्चा या तलकर या भूनकर खाया जाता है, कबाक - चौड़ी तलवार विशेष
मणिपुरी कवि - डॉ. लमाबम कमल सिंह
किताब - कमल : सम्पूर्ण रचनाएँ
मणिपुरी भाषा से हिन्दी अनुवाद - सिद्धनाथ प्रसाद
मणिपुरी भाषा से हिन्दी अनुवाद - सिद्धनाथ प्रसाद
संपादक - डॉ. देवराज
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2006
डॉ. कमल (1899 -1935) कवि, कहानीकार, नाटककार सब थे. उनकी सम्पूर्ण रचनाओं को एक जिल्द में लानेवाले डॉ. देवराज का मत है कि "नवजागरणकालीन लेखकों में कमल का रंग और प्रभाव सबसे भिन्न है...अठारह कविताओं का उनका संग्रह 'लै परेङ्' (1929) मणिपुरी भाषा का प्रथम आधुनिक काव्य-संग्रह है." 'लै परेङ्' यानी पुष्प-माला कितनी खूबसूरत होगी इसका अंदाज़ा इस एक कविता से हो जाता है.
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