ऐसा क्या है इस हवा में
जो मेरी मिट्टी को भुरभुरा बना रहा है
धूप इतनी नम कि हवा उसे
सोखती जाती है पोर पोर से
सिंघाड़ों में उतरता है धरती का दूध
और मखानों के फूटते लावे हैं हवा में
धान का एक एक दाना भरता है
और हरसिंगार खोलता है रात के भेद ;
चारों तरफ एक धूम है
एक प्यारा शोरगुल रोंओं भरा
इसी दिन का तो इंतजार था मुझको
इसी नवरात्र के प्रहार का
आकाश इतना नीला गूँज भरा
शरीर इतना साफ निथरा,
ये हवा जो रोंओं को उठा रही है
ये हवा जो मुझे खोल रही है
जैसे मैं फूल हूँ अगस्त्य का
इतनी इच्छाएँ ऐसी लालसा
मैं भर जाता हूँ जौ के अंकुरों से l
कवि - अरुण कमल
संकलन -पुतली में संसार
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004
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