झरो, झरो, झरो !
जंगम जग प्रांगण में,
जीवन संघर्षण में
नव युग परिवर्तन में
मन के पीले पत्तो !
झरो, झरो, झरो !
सन् सन् शिशिर समीरण
देता क्रांति निमंत्रण !
यही जीवन विस्मृति क्षण, -
जीर्ण जगत के पत्तो !
टरो, टरो, टरो !
कँप कर, उड़ कर, गिर कर,
दब कर, पिस कर, चर मर,
मिट्टी में मिल निर्भर,
अमर बीज के पत्तो !
मरो, मरो, मरो !
तुम पतझर, तुम मधु - जय !
पीले दल, नव किसलय,
तुम्हीं सृजन, वर्धन, लय,
आवागमनी पत्तो !
सरो, सरो, सरो !
जाने से लगता भय ?
जग में रहना सुखमय ?
फिर आओगे निश्चय !
निज चिरत्व से पत्तो !
डरो, डरो, डरो !
जन्म मरण से होकर,
जन्म मरण को खोकर,
स्वप्नों में जग सोकर,
मधु पतझर के पत्तो !
तरो, तरो, तरो !
-फरवरी, 1940
कवि - सुमित्रानंदन पंत
संकलन - ग्राम्या
प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, दसवाँ संस्करण - 1986
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