एक मुझे भी ले लो अपनी नाव पर
देर तनिक हो गई वहाँ, बाजार में,
मोल-तोल के भाव और व्यवहार में ;
आईना था एक अनोखी आब का,
इन्द्रजाल-सा था जिसके दीदार में ;
मैं गरीब ले सका न अपने भाव पर
सनक नहीं तो क्या कहिए, इस ठाट को -
कौड़ी लेकर साथ, चला था हाट को,
जहाँ प्रसाधन बिकते हैं शृंगार के ! -
कौन पूछता मुझ-जैसे बेघाट को ?
पड़ता रहा नमक ही मेरे घाव पर !
हल्का हूँ, कुछ खास न हूँगा भार मैं ;
निर्धन हूँ, दे सकता हूँ, बस, प्यार मैं ;
गीत सुनाऊँगा मीरा के, सूर के ;
ले लेना, जो पाऊँगा दो-चार मैं ;
कृपा करो अब, सर धरता हूँ पाँव पर
कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' (1.11.1912 -19.8.1991)
किताब - रुद्र समग्र
संपादक - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991
आज नानाजी होते तो 100 साल के होते l उनका यह गीत मैंने उनके स्वर में सुना है और अक्सर अपनी माँ व सबसे छोटी बेबी मौसी के स्वर में भी l हम भाई-बहनों के लिए यह काफी जाना-पहचाना है और आज नानाजी को याद करते हुए एक बार फिर गुनगुनाने का मन कर रहा है :
बन्धु ! जरूरी है मुझको घर लौटना,
एक मुझे भी ले लो अपनी नाव पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें