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शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

कारनामा (Karnama by Akhtar ul Iman)


अज़ीम काम करूँ कोई, एक दिन सोचा
कि रहती दुनिया में अपना भी नाम रह जाए
मगर वो काम हो क्या, ज़ेह्न में नहीं आया 
पयंबरी तो ज़ियाँ जान का है, दावा किया
तो जाने सूली पे चढ़ना हो या चलें आरे 
कि ज़िंदा आग की लपटों की नज़्र होना पड़े 
ख़याल आया फ़ुनूने-लतीफ़ा ढेरों हैं          
सनमतराशी है, नग़मागरी कि नक्काशी  
ये सब ही दायमी शुहरत क़ा इक वसीला हैं
मगर न लफ़्ज़ों पे क़ुदरत न रंग क़ाबू में
फिर एक ज़रिया सियासत है नाम पाने का
अलावा नाम के मोहरे बनाके लोगों को
बिसाते-अर्ज़ पे शतरंज खेल सकते हैं 
मगर ये फ़न भी मिरी दस्तरस से बाहर था
फिर  और क्या हो, बहुत कुछ ख़याल दौड़ाया
अलावा इनके मुझे और कुछ नहीं सूझा 
ज़माने बाद समंदर किनारे बैठा था
अज़ीम शै है समंदर भी मेरे दिल ने कहा
वो क्या तरीक़ा हो मैं इसका भाग बन जाऊँ
समझ में आया नहीं कोई रास्ता भी जब
तो झुँझलाके समंदर में कर दिया पेशाब 

अज़ीम = महान्, ज़ियाँ = हानि, फ़ुनूने-लतीफ़ा = ललित कलाएँ, दायमी = शाश्वत, क़ुदरत = पकड़, बिसाते-अर्ज़ पे  = धरती रूपी बिसात पर, दस्तरस = पहुँच, शै = वस्तु

शायर - अखतरुल ईमान 
संग्रह  - पदचिह्न 
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य 
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006

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