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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

शोपेन का नग़मा बजता है (Shopen ka nagma bajta hai by Faiz Ahmad Faiz)

छलनी है अँधेरे का सीना, बरखा के भाले बरसे हैं 
दीवारों के आँसू हैं रवाँ, घर ख़ामोशी में डूबे हैं 
पानी में नहाये हैं बूटे,
गलियों में हू का फेरा है 
शोपेन का  नग़मा बजता है 
शोपेन = Chopin, पोलैंड का प्रसिद्ध संगीतकार 

इक ग़मगीं लड़की के चेहरे पर चाँद की ज़र्दी छाई है
जो बर्फ़ गिरी थी इस पे लहू के छीटों की रुशनाई है
खूँ का हर दाग़ दमकता है 
शोपेन का  नग़मा बजता है 

कुछ आज़ादी के मतवाले, जाँ कफ़ पे लिये मैदाँ में गये 
हर सू दुश्मन का नर्ग़ा था, कुछ बच निकले, कुछ खेत रहे 
आलम में उनका शोहरा है 
शोपेन का  नग़मा बजता है 
कफ़ = हथेली, नर्ग़ा = घेरा 

इक कूँज को सखियाँ छोड़ गयीं आकाश की नीली राहों में 
वो याद में तन्हा रोती थी, लिपटाये अपनी बाँहों में 
इक शाहीं उस पर झपटा है 
शोपेन का  नग़मा बजता है 
शाहीं = बाज़ की तरह का एक पक्षी 

ग़म ने साँचे में ढाला है 
इक बाप के पत्थर चेहरे को 
मुर्दा बेटे के माथे को 
इक माँ ने रोकर चूमा है 
शोपेन का  नग़मा बजता है 

फिर फूलों की रुत लौट आई 
और चाहने वालों की गर्दन में झूले डाले बाँहों ने 
फिर झरने नाचे छन छन छन 
अब बादल है न बरखा है 
शोपेन का नग़मा बजता है 




शायर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
संकलन - सारे सुख़न हमारे 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1987

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

करवटें लेंगे बूँदों के सपने (Karvatein lenge boondon ke sapne by Nagarjun)



अभी-अभी 
कोहरा चीरकर चमकेगा सूरज 
चमक उठेंगी ठूँठ की नंगी-भूरी डालें 

अभी-अभी 
थिरकेगी पछिया बयार 
झरने लग जायेंगे नीम के पीले पत्ते 

अभी-अभी
खिलखिलाकर हँस पड़ेगा कचनार 
गुदगुदा उठेगा उसकी अगवानी में 
अमलतास की टहनियों का पोर-पोर 

अभी-अभी 
करवटें लेंगे बूँदों के सपने 
फूलों के अन्दर 
फलों-फलियों के अन्दर 
                     (1964)

कवि - नागार्जुन 
संकलन - नागार्जुन : चुनी हुई रचनाएँ- 2
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1993

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

एक सपना (Ek sapana by Muktibodh)


पता नहीं न जाने कब से डाल रक्खा है 
शिखरों के रुँधे हुए विवरों में 
आत्म-चेतन अँधेरे में 
              कोई मैला जाल रक्खा है 
नगरों का कचरा सब पाल रक्खा है l

रामायण के न जाने कब के सड़े पत्ते 
गयी-गुज़री रोशनी के टूटे हुए कुछ स्विच 
रौबदार वसीलों से फूले हुए थीसिस 
मरी हुई परियों की
कुर्सियों के टूटे हुए हत्थे 
श्रृंगार-प्रसाधन का अटाला व जाँघिए
पीले पड़े प्रेमपत्र भरे हुए बैंक-बुक 
अँगड़ाई लेती हुई कलाओं की मेहराब 
अध-नंगे वाक़ए 
भिन्न-भिन्न पोज़ और भिन्न रूप-कोण लिए फ़ोटो
रौब-दाब, दाँव-पेंच छक्के-सत्ते
विदेशों के लिए सिये फ़ैशनेबल कपड़े-लत्ते
भूरे पड़े पासपोर्ट सड़े हुए पोर्टमेंटो
और इस सब शुची सामग्री की राशि पर 
भूतपूर्व ज्वालाओं के इन सब 
भवनों के अंदर
तहख़ाने तलघर 
जिनके गहरे सावधान अँधेरे में घनघोर 
मरी हुई परियों के मिले-जुले कमज़ोर 
नाज़ुक-नाज़ुक गलों से 
फूट पड़ता एकाएक 
कोई रोना नभ तक 
गूँजता है अब भी 
कहता है -सारी आग 
जाने कब की बुझ गयी;
गरम-गरम झरनों का झाग भी न बचा है 
सिर्फ़ देह पर रह गयी रह गयी आदतें 
हर चीज़ मुट्ठी में रखने की सिफ़तें 
बन गयी खूँख़ार
इसीलिए, बचा-खुचा जो भी रह गया है 
ब्याजं उसका, दर उसका बहुत बढ़ गया है !!

इतने में देखता मैं क्या हूँ कि 
उन्हीं ज्वालामुखियों के दल में से एक ने 
सीसे-जैसी लंबी-लंबी आसमानी हदों तक 
लंबी चुरुट सुलगायी
दाँतों से होठ दाब जाने किस तैश में 
चहरे की सलवटें और रौबदार कीं
गड़गड़ाते हुए वह कहने लगा - हे मूर्ख,
देख मुझे पहचान 
मुझे जान 
मैं मरा नहीं हूँ 
देखते नहीं हो क्या 
मेरी यह सिगरेट धुँआती है अब तक 
मेरी आग मुझमें है जल रही अब भी l 

इतने में मेरा सपना खुल गया 
                    उचट गयी मेरी नींद l 


कवि - मुक्तिबोध 
किताब - मुक्तिबोध रचनावली, भाग 2 
प्रकाशक - राजकमल, 

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

उस आँगन का चाँद (Us aangan ka chand by Ibne Insha


अंबर ने धरती पर फेंकी नूर की छींट उदास-उदास
आज की शब तो अंधी शब थी, आज किधर से निकला चाँद?
इंशा जी यह और नगर है, इस बस्ती की रीत यही
सबकी अपनी-अपनी आँखें, सबका अपना-अपना चाँद !
अपने सीने के मतला पर जो चमका वह चाँद हुआ
जिसने मन के अँधियारे में आन किया उजियारा,चाँद
चंचल मुस्काती-मुस्काती गोरी का मुखड़ा महताब
पतझड़ के पेड़ों में अटका पीला-सा इक पत्ता चाँद
दुख का दरिया, सुख का सागर इसके दम से देख लिए
हमको अपने साथ ही लेकर डूबा चाँद और उभरा चाँद 



शायर - इब्ने इंशा (1927-1978) 
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स , दिल्ली, पहला संस्करण - 1990

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

हादसा (Hadsa by Amrita Pritam)

बरसों की आरी हँस रही थी
घटनाओं के दाँत नुकीले थे

अकस्मात् एक पाया टूटा
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आँखों में कंकड़ छितरा गये
और नज़र ज़ख्मी हो गयी
कुछ दिखायी नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती होगी !

यित्री - अमृता प्रीतम
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

रविवार, 16 दिसंबर 2012

मुझे पुकार लो (Mujhe pukar lo by Harivansh Rai Bachchan)


इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !

ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग़-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया,
इसीलिए अड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो ;
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !

तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी,
विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो !
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !

उजाड़ से लगा चुका उमीद मैं बहार की,
निदाघ से उमीद की बसन्त के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी,
अँगार से लगा चुका उमीद मैं तुषार की,
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो !
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो !


कवि - हरिवंशराय बच्चन
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ : हरिवंशराय बच्चन
संपादक - मोहन गुप्त
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1986

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

डोर (Dor by Arun Kamal)


मेरे पास कुछ भी तो जमा नहीं
कि ब्याज के भरोसे बैठा रहूँ
हाथ पर हाथ धर
मुझे तो हर दिन नाखून से
खोदनी है नहर
और खींच कर लानी है पानी की डोर
धुर ओठ तक

जितना पानी नहीं कंठ में
उससे अधिक तो पसीना बहा
दसों नाखूनों में धँसी है मट्टी
खून से छलछल ऊँगलियाँ
दूर चमकती है नदी
एक नदी बहुत दूर जैसे
थर्मामीटर में पारे की डोर l


कवि - अरुण कमल
संकलन - पुतली में संसार
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

बीती बात भुला लेने दो (Beetee baat bhula lene do by Ramgopal Sharma 'Rudra'


बीती बात भुला लेने दो !

          मैं लूँ समझ कि सब सपना था,
          जो कुछ था, भ्रम-भर अपना था ;
          इस रस में क्या स्वाद मिलेगा ?
                            मन को और घुला लेने दो !


          ठंडी तो हो ही जाएँगी,
          बादल बन जब ये छाएँगी,
          कुछ दिन तो तल की ज्वाला में
                            चाहों को अकुला लेने दो !

          इतने तड़के आज पधारे !
          जाग रहे जब दीये-तारे ;
          ठहरोगे ? ठहरो, आँखों की
                             गीली धूल धुला लेने दो !
                              
                          (1944)


कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र'
किताब - रुद्र समग्र 
संपादक - नंदकिशोर नवल 
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

गले से लिपटे बछड़े से (Gale se lipate bachhade se by Makhanlal Chaturvedi)


तुम्हारे मधुर अबोले बोल
गूँज उठते प्राणों के पास
इन्हीं में राधा की अंगुलियाँ,
इन्हीं में कान्हा के रस-रास

तुम्हारी निर्मल चितवन देख
हजारों चितवन बलि-बलि जायँ
तुम्हारी फुदक तुम्हारी उछल
रँभाना लेकर माँ का नावँ

तुम्हारे निकट निकुंज निवास,
राधिका-कृष्ण तुम्हारी प्यास
तुम्हारे मधुर अबोले बोल
गूँज उठते प्राणों के पास l
                           (1956-57)


कवि - माखनलाल चतुर्वेदी 
संग्रह - पदचिह्न 
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य 
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

क़ुत्ब मुश्तरी (Kutb Mushtari by Mulla Vajahi)


जिसे बात के रब्त का फ़ाम नईं 
उसे शेर कहने सूँ कुछ काम नईं 
नको कर तू लई बोलने का हवस  
अगर ख़ूब बोले तो यक बैत बस  
हुनर है तो कुछ नाज़ुकी बरत याँ 
कि मोटाँ नईं बाँदते रंग कियाँ 

वो कुछ शेर के फ़न में मुश्किल अछे 
कि लफ़्ज़ होर माने यू सब मिल अछे 
उसी लफ़्ज़ को शेर में लियाएँ तूँ 
कि लिआया है उस्ताद जिस लफ़्ज़ कूँ 
अगर फ़ाम है शेर का तुज कूँ छन्द 
चुने लफ़्ज़ लिया होर मानी बुलन्द 
रखिया एक मानी अगर ज़ोर है 
वले भी मज़ा बात का होर है 
अगर ख़ूब महबूब जूँ सोर है 
सँवारे तो नूर अली नूर है 
अगर लाक ऐबाँ अछे नार में 
हुनर हो दिसे ख़ूब सिंगार में 


शायर - मुल्ला वजही 
किताब - उर्दू का आरम्भिक युग 

लेखक - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007 


अपनी 'उर्दू का आरम्भिक युग' किताब के 'सैद्धांतिक आलोचना और काव्यशास्त्र के उदय' शीर्षक अध्याय में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी  बताते हैं कि मुल्ला वजही ने अपनी मसनवी 'क़ुत्ब मुश्तरी' (1609-10) में भाषा की शुद्धता और मापदंड के बारे में खुलकर लिखा है। "वजही की दृष्टि में शेर में शब्दों का बुनियादी महत्त्व है" और "उस्ताद जो शब्द प्रयोग करे वह सही, और जिसे वह ग़लत कहे वो ग़लत। इस प्रकार वजही सामान्य प्रचलन से अधिक उस्ताद की बात को महत्त्व देते हैं। दूसरी बात यह कि वजही के यहाँ शैली और शब्दों के गुण को भी महत्त्वपूर्ण कहा गया है। यहाँ तक कि विषय मामूली भी हो, तो उसे सुन्दर शैली के द्वारा आकर्षक बनाया जा सकता है ...अंतिम महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वजही ने संस्कृत-साहित्य के अनुरूप सिद्धांत पेश किया है कि शब्द और अर्थ में पूरी समानता और सामंजस्य होना चाहिए।" 

रविवार, 9 दिसंबर 2012

तुम (Tum by Shankho Ghosh)


दूर-दूर तक खूब घूमता
दिन-दिन-भर मैं तिरता फिरता
रस्ते-रस्ते
लेकिन घर पर लौट ढूँढ़ती आँखें तुमको
यदि न दिखीं तुम,
तुम !
मन बुझ जाता l 



कवि - शंख घोष 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - प्रयाग शुक्ल 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

चीख़ (Outburst by Ana Blandiana)


हर एक चीख़ पर 
निकल पड़ता है एक ईश्वर 
अपने विराट परों को लहराता 
अपने परिधान को आसमान भर में उड़ाता l 

कई तरह के हैं ईश्वर 
इस धरती पर 
हम कभी भी सक्षम नहीं हो पाएँगे 
इतना हँसने या रोने के लिए 
उन्हें लुभाने के लिए, जहाँ वे जा छुपते हैं l 

भले ही ठहाके हों या आँसू,
इनसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता :
ज़रूरी चीज़ है चीख़ l 


रोमानियाई कवयित्री - आना ब्लांडिआना (मूल नाम : ओतेलिया वालेरिया कोमां)
संकलन - सच लेता है आकार, समकालीन रोमानियाई कविता 
चयन/सम्पादन - आन्द्रीआ देलेतान्त, ब्रेण्डा वाकर 
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - रणजीत साहा 
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 2002

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

अभी तक खड़ी स्त्री (Abhi tak khadi stree by Raghuvir Sahai)


ग्रीष्म फिर आ गया 
फिर हरे पत्तों के बीच 
खड़ी है वह 
ओंठ नम 
और भरा-भरा-सा चेहरा लिये 
बदली की रोशनी-सी नीचे को देखती 

निरखता रह 
उसे कवि 
न कह 
न हँस 
न रो 
कि वह 
अपनी व्यथा इस वर्ष भी नहीं जानती।
                                                  - 1959


कवि - रघुवीर सहाय 
संकलन - रघुवीर सहाय : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - सुरेश शर्मा 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1994

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

एक छाप (Ek chhaap by Ajneya)

एक छाप रंगों की एक छाप ध्वनि की 
एक सुख स्मृति का - एक व्यथा मन की l 


कवि - अज्ञेय 
संग्रह - सदानीरा, संपूर्ण कविताएं - 1
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1986


आज के दिन  - एक व्यथा मन की !

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

माशूक़ (Mashooq by Wali Dakani)


तेरा मुख मशरिक़ी हुस्न अनवरी जलवा जमाली है 
नैन जामी जबीं फ़िरदौसी व आबरू हिलाली है 
तू ही है खुसरुओ रौशन ज़मीरो-साएबो-शौकत 
तेरे अबरू ये मुझ बेदिल कूँ तुग़राए विसाली है 
वली तुझ क़द-ओ-अबरू का हुआ है शौक़ी-ओ-माएल 
तू हर इक बैत आली होर, हर इक मिसरा ख़याली है 


शायर - वली दकनी
किताब - उर्दू का आरम्भिक युग 
लेखक - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007

बकौल शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी इस "ग़ज़ल में उन्होंने 'माशूक़' की विशेषताएँ गिनाने में अपने पूर्ववर्ती कवियों के नाम अलंकृत रूप में खपाए हैं।" इस ग़ज़ल में आए कवि हैं - मशरिक़ी (मशहदी), अनवरी (अबीवर्दी), (शेख़) जमाली (कंबोह देहलवी), (अब्दुर्रहमान) जामी, फ़िरदौसी (तूसी), (शाह मुबारक) आबरू, हिलाली (चुग़ताई), (अमीर) खुसरो, (मीर हादी) रौशन, (मेरे रौशन) ज़मीर, साएब (तबरेज़ी), शौकत (बुखारी), (मिर्ज़ा) बेदिल, (मुल्ला) तुग़राविसाली (संभवतः देहलवी), (हसन) शौक़ी, (नवाब क़ुतुबुद्दीन) माइल (देहलवी), (नेमत खान) आली, ख़याली (काशी)


सोमवार, 3 दिसंबर 2012

मिरातुल-उरूस (Miratul-Uroos by Nazir Ahmad)



हम्द-ओ-नात के बाद वाज़ह हो कि हर चंद इस मुल्क में मस्तूरात के पढ़ाने-लिखाने का रिवाज नहीं, मगर फिर भी बड़े शहरों में ख़ास-ख़ास शरीफ़ खानदानों की बाज़ औरतें क़ुरान मजीद का तर्जुमा, मज़हबी मसायल और नसायाह के उर्दू रिसाले पढ़-पढ़ा लिया करती हैं. मैं ख़ुदा का शुक्र करता हूँ कि मैं भी देहली के एक ऐसे ही ख़ानदान का आदमी हूँ. ख़ानदान के दस्तूर के मुताबिक़ मेरी लड़कियों ने भी ‘क़ुरान शरीफ़’, उसके मानी और उर्दू के छोटे-छोटे रिसाले घर की बड़ी-बूढ़ियों से पढ़े. घर में रात-दिन पढ़ने-लिखने का चरचा तो रहता ही था. मैं देखता था कि हम मर्दों की देखा-देखी लड़कियों को भी इल्म की तरफ़ एक तरह की ख़ास रग़बत है. लेकिन इसके साथ ही मुझको यह भी मालूम होता था कि निरे मज़हबी ख़यालात बच्चों की हालत के मुनासिब नहीं. और जो मज़ामीन उनके पेशे-नज़र रहते हैं उनसे उनके दिल अफ़सुर्दा, उनकी तबीयतें मुन्कबिज़ और उनके ज़हन कुंद होते हैं. तब मुझको ऐसी किताब की जुस्तजू हुई जो इख़लाक़ ओ नसायह से भरी हुई हो और उन मामलात में जो औरतों की ज़िंदगी में पेश आते हैं और औरतें अपने तोहमात और जहालत और कजराई की वजह से हमेशा इनमें मुब्तिलाये-रंज ओ मुसीबत रहा करती हैं, उनके ख़यालात की इस्लाह और उनकी आदात की तहज़ीब करे और किसी दिलचस्प पैराये में हो जिससे उनका दिल न उकताए, तबीयत न घबराये. मगर तमाम किताबखाना छान मारा ऐसी किताब का पता न मिला, पर न मिला. तब मैंने इस क़िस्से का मंसूबा बाँधा.


लेखक - नज़ीर अहमद  
किताब - मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण)
हिन्दी लिप्यंतर - मदनलाल जैन 
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1958

1869 में अपने छोटे-से नाविल 'मिरातुल-उरूस' की भूमिका (दीबाचा) में लिखी गई डिप्टी नज़ीर अहमद  की यह बात मार्के की है।  लड़कियों व स्त्रियों की शिक्षा में पुरुषों की पहलकदमी और उनके योगदान को बिना कम करके आँके हुए इस एक उद्धरण से स्त्री शिक्षा के लक्ष्य और उसमें घरेलू शिक्षा और धार्मिक शिक्षा की भूमिका को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है.

रविवार, 2 दिसंबर 2012

कुछ-कुछ याद करते (Kuchh-kuchh yaad karate by Vinod Kumar Shukl)

कुछ-कुछ याद करते 
जीवन रोज बीतता रहा 
सब भुला नहीं सका 
जो याद रहता है 
उसी से कुछ भुला देता हूँ 
जो भुला देता हूँ 
उसमें से याद कर लेता हूँ 
और अपने होने को 
काम की तरह सोचता हूँ 
सोमवार से इतवार तक 
एक तारीख से इकतीस तारीख तक 
अगर बत्तीस होगी तो भी l 


कवि - विनोद कुमार शुक्ल 
संकलन - कभी के बाद अभी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2012

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

ऊँचाई (Oonchai by Kedarnath Singh)


मैं वहाँ पहुँचा
और डर गया

मेरे शहर के लोगो
यह कितना भयानक है
कि शहर की सारी सीढ़ियाँ मिलकर
जिस महान ऊँचाई तक जाती हैं
वहाँ कोई नहीं रहता !


कवि - केदारनाथ सिंह
संकलन - यहाँ से देखो
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983

शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

खाना बनातीं स्त्रियाँ (Khana banatin striyan by Kumar Ambuj)


जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ़ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँथा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आख़िर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़

आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर

वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ़ एक आलू एक प्याज़ से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ़ अपने सब्र से
दुखती कमर में, चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफ़ान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया

आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे - उफ़, इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो ज़मीन पर गिराने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में, कटोरियों में

कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुज़र गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ़ की

वे क्लर्क हुईं, अफ़सर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे धकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से, पीठ से
उनके अन्धेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है

उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पडा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकाने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया
उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है l


कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

इस नगरी में रात हुई (Is nagari mein raat hui by Vijaydevnarayan Sahi)


मन में पैठा चोर अँधेरी तारों की बारात हुई
बिना घुटन के बोल न निकले यह भी कोई बात हुई
धीरे धीरे तल्ख़ अँधेरा फैल गया, ख़ामोशी है
आओ ख़ुसरो लौट चलें घर इस नगरी में रात हुई।


कवि - विजयदेवनारायण साही
संकलन - मछलीघर 

प्रथम संस्करण के प्रकाशक - भारती भण्डार, इलाहाबाद, 1966
दूसरे संस्करण के प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1995

बुधवार, 28 नवंबर 2012

चार ईमानदार (Char imandar by Kunwar Narayan)


चार ईमानदार मिलकर
बेईमानी पर बहस कर रहे थे

उनमें से एक
बेमानी का सरकारी वक़ील नियुक्त किया गया

उसने बेमानी के पक्ष में
हर सम्भव दलील दी

लेकिन मुक़द्दमा बहुमत से हार गया l

दरअसल
चारों में से कोई भी
बेमानी के पक्ष में न था

चारों ने मिलकर
बेमानी को शुद्ध बहुमत से हरा दिया था

और चारों ईमानदार एकमत थे
कि बेमानी को हराने का
यही एक तरीक़ा है
कि उसे अल्पमत में ला दिया जाए l


कवि - कुँवर नारायण
संकलन - इन दिनों
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2002

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

गीत (Geet by Bhikari Thakur)


सुनील हमार बात, नइखे नइहर रहल जात; जाइके करब बन में भजन हो भउजिया!
सेज मिरिगा के चाल, ओढ़ना भेड़ी के बाल; जंगल में मंगल उड़ाइब हो भउजिया!
सारी गेरुआ के रंग, मलि के भभूत अंग; गलवा में तुलसी के मलवा भउजिया!
छूरा से छिला के केस, धरबि जोगिन के भेस; लेइब एक हाथ में सुमिरनी भउजिया!
नइहर से छूटल लाग, खाइब कंद-मूल-साग; अनवाँ बउरावत बा बेइमानवाँ भउजिया!
'पिउ-पिउ' करब सोर, मन लागल बाटे मोर; बाँवाँ करवा में सोभी कमंडलवा भउजिया!
बानी पर धेयान दीहन, जंगल में खोज लिहन; दायानिधि चरन का चेरी के भउजिया!
कहत 'भिखारीदास', कातिक से चार मास; जाड़ में लेहब जलसयन हो भउजिया!
फागुन से महीना चारि, धूँई चउरासी जारि; ताहि बीच में हरिगुन गाइब हो भउजिया!
रितु बरसात भर, करि-करि हर-हर; गउरी-गनेस के पूजब  हो भउजिया !


सुमिरनी = स्मरण की माला ; जलसयन = जलशयन, हठयोग की एक विधि ; चउरासी  =  चौरासी अग्नि, हठयोग की एक विधि 

कवि - भिखारी ठाकुर
किताब - भिखारी ठाकुर रचनावली
प्रकाशक - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 2005


प्रस्तुत गीत 'ननद-भउजाई' नाटक से लिया गया है। इसमें तीन पात्र हैं - अखजो (एक अज्ञातयौवना गँवई स्त्री), उसकी भउजाई (बड़े भाई की पत्नी) और उसका पति चेंथरू (झंझटपुर का रहनेवाला युवक) l अखजो की शादी बालपन में हो गई थी l अभी गवना (गौना) नहीं हुआ है l 

सोमवार, 26 नवंबर 2012

तज्दीद (Tajdeed by Kaifi Azmi)


तलातुम, वलवले, हैजान, अरमाँ
सब उसके साथ रुख़्सत हो चुके थे
यकीं था  अब न हँसना है न रोना
कुछ इतना हँस चुके थे, रो चुके थे

किसी ने आज इक अँगड़ाई लेकर
नज़र में  रेशमी  गिरहें  लगा दीं
तलातुम, वलवले, हैजान, अरमाँ
वही  चिंगारियाँ  फिर मुस्करा दीं 

तज्दीद = नवीनीकरण, नवीनता;    तलातुम = बाढ़, तूफ़ान, उद्वेग;

वलवले = उमंगें;    हैजान = बेचैनी, अशांति 
 
शायर - कैफ़ी आज़मी
किताब - कैफ़ियात (कुल्लियात-ए-कैफ़ी आज़मी, 1918-2002)
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2011

रविवार, 25 नवंबर 2012

पुराना दुख, नया दुख (Purana dukh, naya dukh by Shakti Chattopadhyay)



वह जो अपना एक दुख है पुराना 
क्या उससे आज कहूँ कि आओ 
और थोड़ी देर बैठो मेरे पास 

यहाँ मैं हूँ 
वहाँ, मेरी परछाईं 
कितना अच्छा हो कि इसी बीच वह भी आ जाय 
और बैठ जाय मेरी बगल में 

तब मैं अपने नये दुख से कहूँगा 
जाओ 
थोड़ी देर घूम-फिर आओ 
झुलसा दो कहीं कोई और हरियाली 
झकझोर दो किसी और वृक्ष के फूल और पत्ते 
हाँ, जब थक जाना 
तब लौट आना 
पर अभी तो जाओ 
बस थोड़ी-सी जगह दो मेरे पुराने दुख के लिए 
वह आया है न जाने कितने पेड़ों 
और घरों को फलाँगता हुआ 
वह आया है 
और बैठ जाना चाहता है बिल्कुल मुझसे सटकर 

बस उसे कुछ देर सुस्ताने दो 
पाने दो कुछ देर उसे साथ और सुकून 
ओ मेरे नये दुख 
बस थोड़ी-सी जगह दो 
थोड़ा-सा अवकाश 
जाओ 
जाओ 
फिर आ जाना बाद में l 


कवि - शक्ति चट्टोपाध्याय 
बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - केदारनाथ सिंह 
संकलन - शंख घोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1987

शनिवार, 24 नवंबर 2012

नूतन अहं (Nutan aham by Muktibodh)



कर सको घृणा 
क्या इतना 
रखते हो अखण्ड तुम प्रेम ?
जितनी अखण्ड हो सके घृणा 
उतना प्रचण्ड 
रखते क्या जीवन का व्रत-नेम ?
प्रेम करोगे सतत ? कि जिस से 
उस से उठ ऊपर बह लो 
ज्यों जल पृथ्वी के अन्तरंग 
में घूम निकल झरता निर्मल वैसे तुम ऊपर वह लो ?
क्या रखते अन्तर में तुम इतनी ग्लानि 
कि जिस से मरने और मारने को रह लो तुम तत्पर ?
क्या कभी उदासी गहिर रही 
सपनों पर, जीवन पर छायी 
जो पहना दे एकाकीपन का लौह वस्त्र, आत्मा के तन पर ?
है ख़त्म हो चुका स्नेह-कोष सब तेरा 
जो रखता था मन में कुछ गीलापन 
और रिक्त हो चुका सर्व-रोष 
जो चिर-विरोध में रखता था आत्मा में गर्मी, सहज भव्यता,
मधुर आत्म-विश्वास l 
है सूख चुकी वह ग्लानि 
जो आत्मा को बेचैन किये रखती थी अहोरात्र 
कि जिस से देह सदा अस्थिर थी, आँखें लाल, भाल पर 
तीन उग्र रेखाएँ, अरि के उर में तीन शलाकाएँ सुतीक्ष्ण,
किन्तु आज लघु स्वार्थों में घुल, क्रन्दन-विह्वल,
अन्तर्मन यह टार रोड के अन्दर नीचे बहाने वाली गटरों से भी 
है अस्वच्छ अधिक,
यह तेरी लघु विजय और लघु हार l 
तेरी इस दयनीय दशा का लघुतामय संसार 
अहंभाव उत्तुंग हुआ है तेरे मन में 
जैसे घूरे पर उट्ठा है 
धृष्ट कुकुरमुत्ता उन्मत्त l 


कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध 
संकलन - तार सप्तक 
संकलनकर्ता और संपादक - अज्ञेय 
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण - 1963

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

वह शांत है, और मैं भी (He's Calm, and I Am Too by Mahmoud Darwish)



वह शांत है, और मैं भी
वह नींबू वाली चाय पी रहा है,
और मैं कॉफ़ी पी रहा हूँ,
यही फर्क है हम दोनों के बीच.
उसने पहन रखी है, जैसे मैंने, धारीदार बैगी शर्ट
और मैं पढ़ रहा हूँ, जैसे कि वह, शाम का अखबार.
वह मुझे नज़र चुरा कर देखते नहीं देखता
मैं उसे नज़र चुरा कर देखते नहीं देखता,
वह शांत है, और मैं भी.
वह वेटर से कुछ माँगता है,
मैं वेटर से कुछ माँगता हूँ...
एक काली बिल्ली हमारे बीच से गुजरती है,
मैं उसके रोयें सहलाता हूँ
और वह उसके रोयें सहलाता है....
मैं उसे नहीं कहता : आज आसमान साफ़ था
और अधिक नीला
वह मुझसे नहीं कहता : आसमान आज साफ़ था.
वह दृश्य है और द्रष्टा
मैं दृश्य हूँ और द्रष्टा
मैं अपना बायाँ पैर हिलाता हूँ
वह अपना दायाँ पैर हिलाता है
मैं एक गीत की धुन गुनगुनाता हूँ
वह उसी धुन का कोई गीत गुनगुनाता है.
मैं सोचता हूँ : क्या वह आईना है जिसमें मैं खुद को देखता हूँ?

तब मैं उसकी आँखों की ओर देखता हूँ,
लेकिन मैं उसे नहीं देखता...
मैं कैफे से निकल आता हूँ तेजी से .
मैं सोचता हूँ, हो न हो वह एक ह्त्यारा  है, या शायद
वह एक  राहगीर  है जो सोचता हो कि मैं हत्यारा हूँ
वह डरा हुआ है, और मैं भी ! 


फ़िलीस्तीनी कवि - महमूद दरवेश 
संकलन - द बटरफ्लाई'ज़ बर्डन 
अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद - फैडी जूडा 
प्रकाशक - कॉपर कैनियन प्रेस, वाशिंगटन, 2007
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद - अपूर्वानंद 

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

ब्लडप्रेशर (Blood pressure by Vishnu Dey)


इस बीमारी का कोई इलाज नहीं, असाध्य सत्ता की व्याधि में
दवा-दारु बेकार है, सही-सही पथ्य या व्यायाम - किसी से भी
क्या कुछ भी होता है ! अनिद्रा के 
फन्दे में रात कटती है,
रक्त मचल-मचल उठता है, बेदम हो कर नाड़ी छूटने लगती है l
लाल आँखें नीले आकाश पर उदार प्रान्तर पर टिका दो
ऑफ़िस की गोपनीय फ़ाइलों में आँखों का इलाज नहीं है l
अगर खुले मैदान में पेशियों की ज़ंजीर खोल दोगे,
अगर स्नायु नित्य निःस्वार्थ विराट् में मुक्तिस्नान करेंगे,
अगर दिगन्त तक फ़ैली निर्मल हवा में अपने निश्वास छोड़ोगे,
तभी शरीर सुधरेगा, उच्च ताप घटेगा ; इस की दवाई
वैद्यों के हाथ में नहीं है l  इस रोग का नुस्ख़ा है आकाश में,
धरती में, वनस्पति ओषधि में, खेत-मैदान-घास में,
पहाड़ में, नदी में, बाँध में, दृश्य जगत् के अनन्त प्रान्तर में,
प्रकृति में ह्रदय के सहज  स्वस्थ स्वप्न में रूपान्तर में ;
इस की चिकित्सा है लोगों की भीड़ में, गन्दी बस्ती की झोंपड़ियों की
                                                                                   जनता में -
जनता में या धरती में, एक ही बात है, अन्योन्य सत्ता में ll
                                                                                  - 7.3.1959


कवि - विष्णु दे
संकलन - स्मृति सत्ता भविष्यत्

बांग्ला से हिन्दी अनुवाद - भारतभूषण अग्रवाल 

प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण - 1972

















 

सोमवार, 19 नवंबर 2012

गुल मकई उर्फ मलाला युसूफ़ज़ई की डायरी (Malala Yousafzai's diary)


सनीचर, जनवरी, 2009 : मैं डर गई हूं

कल पूरी रात मैंने ऐसा डरावना ख़्वाब देखा जिसमें फ़ौजी हेलीकॉप्टर और तालिबान दिखाई दिए। स्वात में फ़ौजी ऑपरेशन शुरू होने के बाद इस क़िस्म के ख़्वाब मैं बार-बार देख रही हूं। मां ने नाश्ता दिया और फिर तैयारी करके मैं स्कूल के लिए रवाना हो गई। मुङो स्कूल जाते व़क्त बहुत ख़ौफ महसूस हो रहा था क्योंकि तालिबान ने एलान किया है कि लड़कियां स्कूल न जाएं।

आज हमारे क्लास में 27 में से सिर्फ़ 11लड़कियां हाज़िर थीं। यह तादाद इसलिए घट गई है कि लोग तालिबान के एलान के बाद डर गए हैं। मेरी तीन सहेलियां स्कूल छोड़कर अपने ख़ानदानवालों के साथ पेशावर, लाहौर और रावलपिंडी जा चुकी हैं।

एक बजकर चालीस मिनट पर स्कूल की छुट्टी हुई। घर जाते व़क्त रास्ते में मुङो एक शख़्स की आवाज़ सुनाई दी जो कह रहा था, ‘मैं आपको नहीं छोडूंगा।मैं डर गई और मैंने अपनी रफ्तार बढ़ा दी। जब थोड़ा आगे गई तो पीछे मुड़ कर मैंने देखा वह किसी और को फोन पर धमकियां दे रहा था मैं यह समझ बैठी कि वह शायद मुङो ही कह रहा है। 

सोमवार, 5 जनवरी, 2009 : ज़रक़ बरक़ लिबास नहीं पहनें 

आज जब स्कूल जाने के लिए मैंने यूनिफॉर्म पहनने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो याद आया कि हेडमिस्ट्रेस ने कहा था कि आइंदा हम घर के कपड़े पहन कर स्कूल आ जाया करें। मैंने अपने पसंदीदा गुलाबी रंग के कपड़े पहन लिए। स्कूल में हर लड़की ने घर के कपड़े पहन लिए जिससे स्कूल घर जैसा लग रहा था। इस दौरान मेरी एक सहेली डरती हुई मेरे पास आई और बार-बार क़ुरान का वास्ता देकर पूछने लगी कि ख़ुदा के लिए सच-सच बताओ, हमारे स्कूल को तालिबान से ख़तरा तो नहीं?’

मैं स्कूल ख़र्च यूनिफॉर्म की जेब में रखती थी, लेकिन आज जब भी मैं भूले से अपनी जेब में हाथ डालने की कोशिश करती तो हाथ फिसल जाता क्योंकि मेरे घर के कपड़ों में जेब सिली ही नहीं थी।

आज हमें असेम्बली में फ़िर कहा गया कि आइंदा से ज़रक़ बरक़ (तड़क-भड़क, रंगीन) लिबास पहन कर न आएं क्योंकि इस पर भी तालिबान ख़फ़ा हो सकते हैं।

बुधवार, 14 जनवरी, 2009 शायद दोबारा स्कूल ना आ सकूं

आज मैं स्कूल जाते व़क्त बहुत ख़फा थी क्योंकि कल से सर्दियों की छुट्टियां शुरू हो रही हैं। हेडमिस्ट्रेस ने छुट्टियों का एलान तो किया तो मगर मुक़र्रर तारीख़ नहीं बताई। ऐसा पहली बार हुआ है। पहले हमेशा छुट्टियों के ख़त्म होने की मुक़र्रर तारीख़ बताई जाती थी। इसकी वजह तो उन्होंने नहीं बताई, लेकिन मेरा ख़याल है कि तालिबान की जा
निब से पंद्रह जनवरी के बाद लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंदी के सबब ऐसा किया गया है।

इस बार लड़कियां भी छुट्टियों के बारे में पहले की तरह ज़्यादा ख़ुश दिखाई नहीं दे रही थीं क्योंकि उनका ख़याल था कि अगर तालिबान ने अपने एलान पर अमल किया तो शायद स्कूल दोबारा न आ सकें।

जुमेरात, 15 जनवरी, 2009 तोपों की गरज से भरपूर रात

पूरी रात तोपों की शदीद घन गरज थी जिसकी वजह से मैं तीन मर्तबा जग उठी। आज ही से स्कूल की छुट्टियां भी शुरू हो गई हैं, इसलिए मैं आराम से दस बजे उठी। बाद में मेरी क्लास की एक दोस्त आई और हमने होमवर्क के बारे में बात की।

आज पंद्रह जनवरी थी यानी तालिबान की तरफ़ से लड़कियों के स्कूल न जाने की धमकी की आख़िरी तारीख़। मगर मेरी दोस्त कुछ इस एत्माद से होमवर्क कर रही है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

आज मैंने मक़ामी अख़बार में बीबीसी पर शाया होनेवाली अपनी डायरी भी पढ़ी। मेरी मां को मेरा फ़र्ज़ी नाम गुल मकईबहुत पसंद आया और अब्बू से कहने लगी कि मेरा नाम बदल कर गुल मकई क्यों नहीं रख लेते। मुङो भी यह नाम पसंद आया क्योंकि मुङो अपना नाम इसलिए अच्छा नहीं लगता कि इसके मानी ग़मज़दा:के हैं।

अब्बू ने बताया कि चंद दिन पहले भी किसी ने डायरी की प्रिंट लेकर उन्हें दिखाई थी कि ये देखो स्वात की किसी तालिबा कि कितनी ज़बरदस्त डायरी छप रही है। अब्बू ने कहा कि मैंने मुस्कराते हुए डायरी पर नज़र डाली और डर के मारे यह भी न कह सका कि हां, यह तो मेरी बेटी की है।



लेखिका - गुल मकई उर्फ मलाला युसूफ़ज़ई
मूल स्रोत - बीबीसी उर्दू वेबसाइट 
उर्दू से हिन्दी अनुवाद- नासिरूद्दीन
प्रकाशक - जेण्डर जिहाद ब्लॉग    https://www.facebook.com/genderjihad, http://t.co/fZ8vD99L