सुबह की डाक से चिट्ठी मिली, उसने मुझे इस अहंकार में दिन-भर उड़ाया कि मैं पवित्र आदमी हूँ क्योंकि साहित्य का काम एक पवित्र काम है. दिन-भर मैंने हर मिलनेवाले को तुच्छ समझा. मैं हर आदमी को अपवित्र मानकर उससे अपने को बचाता रहा. पवित्रता ऐसी कायर चीज है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है. अपने पवित्र होने का अहसास आदमी को ऐसा मदमाता बनाता है कि वह उठे हुए साँड की तरह लोगों को सींग मारता है, ठेले उलटाता है, बच्चों को रगेदता है. पवित्रता की भावना से भरा लेखक उस मोर जैसा होता है जिसके पाँव में घुँघरू बाँध दिये गये हों. वह इत्र की ऐसी शीशी है जो गन्दी नाली के किनारे की दुकान पर रखी है. यह इत्र गन्दगी के डर से शीशी में ही बन्द रहता है.
वह चिट्ठी साहित्य की एक मशहूर संस्था के सचिव की तरफ से थी. मैं उस संस्था का, जिसका लाखों का कारोबार है, सदस्य बना लिया गया हूँ. स्थायी समिति का सदस्य हूँ....
लेखक - हरिशंकर परसाई
व्यंग्य-संग्रह - प्रेमचंद के फटे जूते
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, छठा संस्करण, 2009
परसाईं की कई रचनाएं ऐसी हैं कि अरसे बाद फिर पढ़ने पर भी चौंकाती हैं। शुक्रिया।
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