उस समय उर्दू-बाज़ार (छावनी के साथ चलनेवाला बाज़ार) में एक लड़का था. उसका नाम था बाबरी. हमनामी का यह लगाव भी क्या लगाव निकला ! उससे एक अजीब लगाव पैदा हो गया :
"मीन आनक़ा ग़रीब मेहर पैदा क़ीलदीम
बल्कि आनक़ा ऊज़ीनी ज़ारोशैदा क़ीलदीम !"
(उस परी-चेहरा पर हुआ शैदा -
बल्कि अपनी ख़ुदी भी खो बैठा !)
इससे पहले मैं किसी पर मुग्ध या आसक्त न हुआ था. सच तो यह है कि तब तक किसी से प्यार और मुहब्बत क़ी बात तक न हुई थी. दिल-लगी क़ा नाम तक न सुना था. अब हाल यह हुआ कि फ़ारसी में प्यार के एकाध शेर तक कहने लगा. उनमें से एक शेर यह है -
"हेच कस चूँ मन ख़राबो आशिक़ो रुसवा मबाद
हेच महबूबे चु तू बेरहमो बेपरवा मबाद !"
(कोई आशिक़, नंगे-ख़ुद, बरबाद मुझ-जैसा न हो,
और तुझ-सा बुत कोई बेरहम बेपरवा न हो !)
लेकिन हाल यह था कि अगर कभी बाबरी मेरे सामने आ जाता था तो लाज और सकुचाहट के मारे मैं उसकी ओर आँख भर देख भी नहीं सकता था. ऐसे में इस बात क़ो तो पूछना ही क्या कि मैं उससे मिल सकूँ और बातें कर सकूँ.उसके आगे अपने दिल क़ा हंगामा बेपर्द करना तो दूर, दिल क़ी घबराहट और बेचैनी क़ा यह आलम था कि उसके आने क़ा शुक्रिया तक अदा नहीं कर पाता था ! यह तो कहाँ कि न आने क़ा उलाहना होंठों पर ला सकता ! और ज़बरदस्ती बुलाने क़ी मजाल ही भला किसको थी ! अपने आप पर इतना भी बस नहीं था कि वह आए और मैं मामूली तक़ल्लुफ़ भी बरत सकूँ. आशिक़ी और दीवानगी के उन्हीं दिनों में एक बार ऐसा हुआ कि अपने बहुत थोड़े-से ही एकदम नज़दीकी निजी सेवकों के साथ किसी गली में चला जा रहा था कि अचानक बाबरी से मेरा आमना-सामना हो गया. मेरी अजब हालत हो गई थी. वह अवस्था दूर न थी कि अपने आपे तक में न रहूँ. आँख उठाकर देखना या बात करना बिलकुल मुमकिन न था. मुंह से एक भी बोल न निकल पाया. बहुत झेंप और घबराहट के साथ मैं आगे बढ़ पाया. उस समय मुहम्मद सालिह क़ी यह फ़ारसी बैत बरबस याद आ गई :
"शबम शरमिंदा हर-गह यारे-ख़ुद-रा दर-नज़र बीनम
रफ़ीकां सूय-मन बीनंदो मन सूए-दीगर बीनम !"
(गड़ा जाता हूँ जब-जब यार क़ा रू देखता हूँ मैं
मुझे सब देखते हैं, और ही सू देखता हूँ मैं !)
यह बैत मेरे हाल पर सोलहों आने सच थी. उन दिनों प्यार और मुहब्बत क़ा ऐसा ज़ोर और जवानी और जूनून क़ा ऐसा हंगामा मुझ पर सवार था कि कभी-कभी मैं नंगे पाँव महल्लों-महल्लों, बाग़ों-बाग़ों और बागीचों-बागीचों टहलता ही रह जाता था. न अपने या पराये क़ी ओर कोई शिष्टता रह गई थी और न अपनी या दूसरे क़ी कोई परवा. इस तुरकी शेर के शब्दों में -
"आशिक़ ऊजग़ाच बेख़ुद व दीवाना बूलदूम बीलमादूम
कीम परी-रुखसारालगर इश्केग़ बू ईरमीश ख़ास !"
(न था मालूम, यह गत आशिक़ी में मैं बना बैठा -
परी चेहरों क़ा आशिक़ बेख़ुदो-दीवाना होता है !)
कभी तो मैं पागलों क़ी तरह जंगलों-पहाड़ों में मारा-मारा फिरता था और कभी बाग़ों और महल्लों में गली-गली भटकता रहता था. न तो भटकने फिरने पर अपना बस था और न ही मन मारे बैठे रहने पर. न चलने में चैन मिलती थी (मिलता था) न ठहरने में.
" नी बागे रग़ा कुवातीम बार नी तूरमाग़ा ताक़तीम
बीज़नी बूहालतक़ सीन क़ीलदीनक गिरफ़तारई कूंकूल !"
(जाऊँ न वह कूवत रही, ठहरूँ नहीं वह ताब
क्या और तू ऐ दिल मुझे बेहाल करेगा !)
बाबरनामा - बाबर के स्वरचित संस्मरण
अंग्रेज़ी अनुवाद - जॉन लीडेन और विलियम एसर्काइन
अंग्रेज़ी संस्करण के सम्पादक - एफ. जी. टैलबोट
अनुवादक - युगजीत नवलपुरी
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1974
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