सराप हुस्ने-समधिन गोया गुलशन की क्यारी है
परी भी अब तो बाज़ी हुस्न में समधिन से हारी है
खिंची कंघी गुँथी चोटी जमी पट्टी लगा काजल
कमाँ अब्रू नज़र जादू निगाह हर एक दुलारी है
जबीं महताब आँखें शोख़ शीरीं लब गोहर-दन्दाँ
बदन मोती दहन गुंचा अदा हँसने की प्यारी है
नया किमख़्वाब का लहँगा झमकते ताश की अँगिया
कुचें तसवीर-सी जिन पर लगा गोटा किनारी है
मुलायम पेट मख़मल-सा कली-सी नाफ़की सूरत
उठा सीना सफ़ा पेडू अजब जोबन की नारी है
लटकती चाल मदमाता चले बिच्छू को झनकाती
अदा में दिल लिये जाती अजब समधिन हमारी है
भरे जोबन पै इतराती झमक अँगिया की दिखलाती
कमर लहँगे से बल खाती लटक घूँघट की भारी है
सराप- सर से पैर तक, अब्रू - भवें कमान की तरह, जबीं - ललाट, महताब - चाँद, गोहर - मोती, दन्दाँ - दाँत यानी मोती की तरह दाँत, नाफ़की - नाभि, बिच्छू - पैर की अँगुली में पहननेवाला जेवर, बिछुवा
कवि - नजीर अकबराबादी
संग्रह - नज़ीर की बानी
प्रस्तुतकर्ता - फ़िराक़ गोरखपुरी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1999
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