जल तक गगरी पहुँच न पाई घनी-घनी यह अँधेरी ;
ओछी री रसरी मेरी !
गहरा कुआँ, व्योम-तारक वह विहँस उठा जल में नीचे,
रीता (खाली) घट भी भारी-भारी, हतभागी कैसे खींचे.
लौट गईं जल भर-भरकर वे सब की सब घर अपने री,
ओछी री रसरी मेरी !
हुई अबेर (देर), दूर तक वन-पथ, खग-मृग झीमे-झीमे से;
किसे पुकारूँ, खिसक रही है साँझ-सुबह री धीमे-से.
बढ़ी आ रही रजनी प्रतिपल लिए मौन भय की भेरी.
ओछी री रसरी मेरी !
आओ हो आओ, मुझको ही बाँधो मेरी रसरी में;
बड़ी बनूँगी उतर आप ही भर लाऊँगी गगरी मैं.
रीता घट ले लौट सकेगी कैसे यह प्रिय की चेरी;
ओछी री रसरी मेरी !
कवि - सियारामशरण गुप्त
संग्रह - पदचिह्न
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006
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