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मंगलवार, 10 जुलाई 2012

मात्राएँ दीर्घ हैं...(Matrayein deergh hain by Nagarjun )


छंदों में तो मुश्किल से आएगा य' नाम...
मात्राएँ दीर्घ हैं, क्यों न कर लूँ प्रणाम !
बोल री पूरब, यहाँ खीझ का क्या काम ?
बच्चों की लाड़ को चाहिए ज्यादा ही दाम
मात्राएँ दीर्घ हैं, क्यों न कर लूँ प्रणाम !

यह मगर क्या हुआ ?
तुकों को छलना हुआ !
जमे नहीं मतलब
पेन का चलना हुआ !
पूर्वी फिर कहाँ गई ? कहाँ गई पूर्वा
दूब तो ओझल हुई, हाथ आई दूर्वा

चालू करूँ ट्रांजिस्टर ?
लाहोर, पेकिंङ्, मास्को, बी. बी. सी....
जी हाँ, वे भी सुनवाते हैं बंबइया गीत फ़िल्मी...
जी हाँ, रात को साढ़े ग्यारह के बाद...
जी हाँ, चालू किया ट्रांजिस्टर...
मल्का-ए-तरन्नुम नूरजहाँ गा रही
जी हाँ, सुनिए बन्धु, आप भी
जी हाँ पूर्वी तो सो गई
सो गई पुरबिया...

ढेर सारे नाम हैं उसके तो...
जी हाँ, बस करूँ अब इस वक्त
मल्काए-तरन्नुम नूरजहाँ गा रही
"मिल के खलोइए, मिलके खलोइए..."
और अपना तो अन्तर्मन
चेतना की भीतरी परतों में
अब भी गुनगुनाता है -
गुनगुनाता रहेगा शायद देर तक -
"मात्राएँ दीर्घ हैं, क्यों न कर लूँ प्रणाम ?
बच्चों की लाड़ को चाहिए ज्यादा ही दाम !
बोल री पूरब, यहाँ खीझ का क्या काम
छंदों में तो मुश्किल से आएगा य' नाम
मात्राएँ दीर्घ हैं, क्यों न कर लूँ प्रणाम "


                         कवि - नागार्जुन, 1978
                         संग्रह - पुरानी जूतियों का कोरस
                         प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1983

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