स्कूल शुरू हुआ.
कसबे गुरुजी कक्षा में डॉ.बाबा साहब आंबेडकर जी का पाठ पढ़ा रहे थे. पूरी कक्षा में खामोशी थी.
मध्यांतर हुआ. और गाँव में यह समाचार फैला कि "कसबे गुरुजी ने कक्षा में आंबेडकर का पाठ पढ़ाया." गाँव असंतुलित हुआ. नरेंद्र पाटील चिढ गया. उसने गाँव के लोगों को इकट्ठा किया. बाजीराव चव्हाण सबके आगे था. सदाशिव मोरे चिल्ला-चिल्लाकर सवर्णों को इकट्ठा कर रहा था. अलबत्ता रामभाऊ काबले बीमारी का बहाना बनाकर बाड़े से बाहर निकला ही नहीं.
लोगों की आहट सुनकर पूरा स्कूल परेशान हो गया. कक्षा के छोटे बच्चे रोने लगे. नरेंद्र पाटील, बाजीराव चव्हाण और सदाशिव मोरे कक्षा में घुस गए. पूरी कक्षा डर गई. "क्यों गुरुजी, तुमने हमारे बच्चों को आंबेडकर पढ़ाया कि नहीं ?" कक्षा में सभी लड़के एक स्वर में चिल्लाए-"हाँ हाँ." उसके बाद पूरी कक्षा में शांति फ़ैल गई. कसबे गुरुजी पसीने तरबतर हो गए. वे कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे.
"बोलो, यह सच है कि नहीं ?"
"जो किताब में है, वही मैंने पढ़ाया."
"किताब में तुम्हारा आंबेडकर कैसे आ सकता है ?"
"किताब में डॉ.बाबा साहब आंबेडकर पर एक पाठ है."
"ऐसा पाठ हमारे बच्चों को पढ़ाया न करो."
"परीक्षा में उस पर प्रश्न आ सकता है."
"हमारे बच्चे फेल हो जाएँगे. पर आंबेडकर का पाठ नहीं पढेंगे."
"मैं शिक्षक हूँ. मैं वह पाठ पढ़ाऊँगा ही."
"गुरुजी झूठ बोल रहे हैं. महारों का आंबेडकर किताब में कैसे हो सकता है?"
"किताब में ही है, देखी."
"बताओ कहाँ है ?"
"यह देखिएs यह पाठs पृष्ठ नंबर 42 ."
"इधर लाइए वह किताब."
"लीजिए."
"बच्चो, s मैं आंबेडकर के पाठ के पन्ने फाड़ रहा हूँ. तुम भी फाड़ो."
बच्चों ने अपने बस्तों में से किताब निकाली. किताब का पृष्ठ क्रमांक 42 निकाला और सभी ने वह पन्ना फाड़ दिया. फटे हुए पन्ने गुरुजी के मुँह पर फेंके गए. "हुर्रेss" करते हुए सभी तथाकथित प्रतिष्ठित कक्षा के बाहर निकल गए. एक क्षण में पूरी कक्षा खाली हो गई. बाबा साहब की तस्वीर के 20 -30 पन्ने पूरी क्लास में बिखरे थे. कसबे गुरुजी ने सभी पन्ने इकट्ठे किए. प्रत्येक पन्ने में बाबा साहब को देखते रहे. कसबे गुरुजी की आँखों से आँसू बहने लगे.
लेखक - शरणकुमार लिंबाले
उपन्यास - हिंदू, पृष्ठ संख्या 42 - 43
मराठी से अनुवाद - सूर्यनारायण रणसुभे
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2004
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