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सोमवार, 2 जुलाई 2012

मेरी ज़िंदगी में चेखव (Meri zindagi mein Chekhov by Lydia Evilov)


                                                        एक 
24 जनवरी, 1889 . बड़ी बहन  नाद्या का सन्देश आया, 'चेखव से मिलना है तो तुरन्त चली आओ.'
नाद्या का ब्याह एक बड़े अखबार के सम्पादक-प्रकाशक के साथ हुआ था....मेरी शादी हाल ही में विश्विद्यालय के एक स्नातक के साथ हुई थी, मेरे पति शिक्षामन्त्रालय में सहायक सचिव थे. और मेरे अतीत में क्या था? सिर्फ कुछ अधूरे सपने.
एक सपना मैंने देखा था-लेखिका बनने का. कहानी और कविता मैं बचपन से ही लिखने लगी थी. अपना लेखन मुझे जीवन में सबसे ज़्यादा प्यारा था, संसार में साहित्य ही मेरा सब कुछ था. मैं बहुत पढ़ाकू भी थी और चेखान्ते (लेखन के आरम्भिक वर्षों में चेखव का छद्म नाम) मेरे प्रिय लेखकों में थे, उनकी कहानियाँ, नाद्या के पति सिरगेयी के अखबार में भी छपती थीं-और हर कहानी मुझे छू जाती थी.
...और अब यह सन्देश
...मेरे पति मिख़ाइल व्यस्त थे और चेखव से मिलने को ख़ास उत्सुक भी नहीं थे. इसलिए मैं अकेली ही गई.
...खाने की मेज़ पर चेखव मेरी बगल में बैठे.
"ये लिखती भी हैं," सिरगेयी ने चेखव को बताने की कृपा की, "इनके अन्दर कुछ है ज़रूर...एक चिंगारी...और विचार भी...ज़्यादा तो नहीं पर हर कहानी में कुछ-न-कुछ होता ज़रूर है."
चेखव मुस्कुराते हुए मेरी ओर घूमे, "लेखक को वही लिखना चाहिए जो उसने देखा और भोगा है-पूरी सच्चाई और ईमानदारी के साथ. मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि किसी कहानी के पीछे मेरा अभिप्राय क्या था. ऐसे प्रश्नों का उत्तर मैं कभी नहीं देता. मेरा काम है लिखना और," वे मुस्कुराकर बोले, "मैं जिस विषय पर कहो लिख सकता हूँ. कहो तो इस बोतल पर 'बोतल' शीर्षक की कहानी लिखकर दिखाऊँ. जीवन का अनुभव विचार को जन्म दे सकता है, लेकिन विचार अनुभव को जन्म नहीं दे सकता."
एक मेहमान की आपत्ति को उन्होंने ध्यान से सुना, सोचते हुए माथे पर कुछ बल पड़े फिर वे कुर्सी की पीठ के साथ टिक गए.
"आपका कहना बिलकुल सही है," वे बोले, "लेखक सिर्फ़ चहकनेवाली चिड़िया नहीं है. फिर मैं कहाँ कहता हूँ कि हर समय चहको. मैं ज़िन्दा हूँ, सोचता हूँ, लड़ता हूँ, सहता हूँ तो यह सब मेरे लेखन में झलकेगा ही. मैं जीवन को उसके यथार्थ रूप में कलात्मक दृष्टि से तुम्हारे सामने रखूँगा...और तुम उसमें वह सब देख पाओगे जो तुम्हें पहले नहीं दिखाई दिया था ; उसकी तमाम विसंगतियां और असामान्यताएँ..."
                                                            तीन 
जनवरी, 1892 .सिरगेयी के अखबार की स्थापना की पच्चीसवीं वर्षगाँठ का समारोह था.
...चेखव ने कहा,..."तीन साल पहले जब हम मिले थे तो क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगा था कि हमारा परिचय पहली बार हुआ हो, मगर हमारी जान-पहचान पुरानी है और हमने एक लम्बे बिछोह के बाद एक-दूसरे को पाया है?"
                                                             छह 
...वे बोले..."क्या तुम जानती हो मैं तुम्हें कितनी गहराई, कितनी शिद्दत से प्यार करता था ? हाँ, मुझे तुमसे प्यार था."
...मेरे कान झनझना रहे थे...एकदम हतबुद्धि हो गई थी मैं-न कुछ समझ पा रही थी न कह पा रही थी.
                                                             सात 
...फिर कैसे, क्या हुआ, मुझे पता ही नहीं चला. बस एक झोंका सा आया...यह झोंका था मेरे प्यार और विश्वास का, मेरे गहरे दर्द का.
...आखिर मैंने इरादा पक्का किया और एक जौहरी की दुकान पर गई. वहाँ मैंने घड़ी की चैन में पहनने के लिए पुस्तक की आकृति का एक पेंडेंट बनाने का आदेश दिया. पुस्तक के एक ओर लिखवाया-'चेखव की लघुकथाएँ. और दूसरी ओर 'पृष्ठ 267', पंक्ति 6 और 7.  
चेखव यदि अपनी किताब में ये पंक्तियाँ खोजते तो पढ़ते :
"अगर कभी मेरे प्राणों की जरूरत हो तो आना और निस्संकोच ले लेना."


 लेखिका - लीडिया एविलोव
 संग्रह - मेरी ज़िंदगी में चेखव
 अनुवाद - रंजना श्रीवास्तव (डेविड मैगार्शक के अंग्रेज़ी अनुवाद से पुनः प्रस्तुति)
 सम्पादक - राजेन्द्र यादव 
 प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2005

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